Saturday 13 December, 2008

नहीं सूख रहे आतंक के जख्म



मुंबई आतंकवादी हमले को बीते करीब-करीब दो हफ्ते बीत चुके हैं, लेकिन लोगों के जेहन से उसकी खैफनाक यादें अभी भी नहीं मिट पा रही हैं। कुछ लोग अवचेतन अवस्था में खुद पर हमले के डर से दो चार हो रहे हैं, जबकि कइयों की रातों की नींद गायब हो चुकी है।


मुंबई में हुए आतंकवादी हमले से न सिर्फ जान-माल का काफी नुकसान हुआ है, बल्कि लोगों को गहरा मानसिक आघात भी पहुंचा है। हालांकि उन हमलों को करीब दो हफ्ते बीत चुके हैं, लेकिन उस दौरान टेलिविजन और अखबारों में दिखाए गए खतरनाक दृश्य अभी भी लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहे। `बॉलिवुड सिटी´ पर हुए इस हमले ने कई सिलेब्रिटीज को भी प्रभावित किया है। खबर है कि आतंकवादी हमले से डिस्टर्ब हुए आमिर ने अपनी आने वाली फिल्म `गजनी´ का प्रमोशन आगे खिसका दिया है। पहले से तय कार्यक्रम के मुताबिक आमिर को नवंबर के अंत में `गजनी´ का प्रमोशन शुरू करना था, लेकिन 26 नवंबर को हुए हमले ने उन्हें डिप्रेशन में ला दिया है। इसी वजह से उन्होंने अपनी फिल्म के प्रमोशन आगे खिसका दिया। आमिर की ही तरह कई और सिलेब्रिटीज भी इसी तरह की परेशानी से ग्रस्त हैं।
सिर्फ सिलेब्रिटी ही नहीं, इस आतंकवादी हमले ने आम आदमी को भी काफी नुकसान पहुँचाया है। आईटी प्रफेशनल अंकुर बताते हैं, `आतंकवादियों और कमांडोज के बीच लगातार हो रही गोलीबारी, आग और धमाकों के सीन मेरे जेहन से निकल नहीं पा रहे हैं। टीवी देखते हुए अभी भी मेरी आंखों के सामने गोलीबारी और धमाकों के वही सीन छाने लगते हैं।´ दिल्ली यूनिवरसिटी की स्टूडेंट मीनाक्षी को इन हमलों की वजह से नींद नहीं आने की परेशानी हो गई है। उन्होंने बताया, `आतंकवादी जिस दर्दनाक तरीके से लोगों पर गोलियां बरसा रहे थे, उसे मैं भूल नहीं पा रही हूँ । दिन के वक्त तो मैं फिर भी ठीक रहती हूं, लेकिन रात को मुझे बहुत डर लगता है। डरावने सपने आने की वजह से मेरी आंख खुल जाती है और फिर दोबारा नींद नहीं आती।´
गौरतलब है कि यह पहला ऐसा आतंकवादी हमला था, जिस पर काबू पाने में सुरक्षा बलों को इतना लंबा वक्त लगा। साथ ही, टेलिविजन चैनलों पर लगातार जवाबी कार्रवाई का लाइव टेलिकास्ट किया जा रहा था। इस बात ने लोगों पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। बिजनेस मैन राजीव कहते हैं, `उन दिनों हमारा कामकाज काफी हद तक ठप हो गया था। जिसे देखो, वही मुंबई आतंकवादी हमले की चर्चा करता नजर आता था। हम भी लगातार टीवी देखते रहते थे। तब तो उत्सुकता और जोश की वजह से हमने वह प्रसारण देखा, लेकिन उसका दुष्प्रभाव अब समझ आ रहा है। अब हालत यह हो गई है कि थोड़ा-बहुत शोर या पटाखे की जोरदार आवाज ही मुझे भीतर तक कंपा देती है।´
जाने-माने साइकाटि्रस्ट डॉक्टर समीर पारिख कहते हैं कि हमले के वक्त वहां मौजूद लोगों और उनके करीबी रिश्तेदारों को इस तरह की शिकायत होने की ज्यादा संभावना है। यह एक तरह की साइकोलॉजिकल प्रॉब्लम है, जिसके तहत हम ट्रॉमा को भूल नहीं पाते और लगातार उसे महसूस करते रहते हैं। रही बात टेलिविजन पर आतंकवादियों व सुरक्षा बलों की लड़ाई और तबाही के सीन देखने वालों की, तो उनकी परेशानी भी स्वाभाविक है। इस तरह की परेशानी से ग्रस्त लोगों को अपने करीबी लोगों के साथ बातचीत करके अपनी परेशानी साझा करनी चाहिए। साथ ही, काम में मन लगाने की कोशिश करनी चाहिए। किसी हादसे के तीन-चार हफ्ते बाद तक उसकी बुरी यादें जेहन में रहती हैं और फिर सब सामान्य होने लगता है। लेकिन उसके बाद भी परेशानी दूर ना हो, तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।

Friday 12 December, 2008

यह राह नहीं आसां.....


पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार ने `लिव इन´ के मुद्दे पर बदलाव के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है। प्रस्ताव में कहा गया है कि लंबे अरसे से `लिव इन´ में रह रही महिलाओं को पत्नी जैसे अधिकार दिए जाएं। भले ही हमारे समाज ने कितनी भी तरक्की कर ली हो, लेकिन अभी भी `लिव इन´ को मान्यता नहीं मिली है। ऐसे में इस प्रस्ताव ने नई बहस को जन्म दे दिया है :

भारत बहुत तेजी से बदल रहा है। साथ ही यहां रहने वाले लोग और उनके रहने-सहने का अंदाज भी बदल रहा है। पहले जहां सिर्फ गिने-चुने फील्ड्स के लोग ही रात की शिफ्ट में काम किया करते थे, वहीं आज ऐसे फील्ड्स की कमी नहीं जिनमें चौबीसों घंटे काम होता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ लड़के, बल्कि लड़कियां भी इन फील्ड्स में काम कर रही हैं। येलड़के-लड़कियां छोटे शहरों से आकर मेट्रोज में अपने भविष्य की तलाश रहे हैं। जाहिर है कि घर से दूर रहने की वजह से उन्हें कहीं ना कहीं भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। जवानी की दहलीज पर खड़े होने की वजह से अपोजिट सेक्स का पार्टनर उन्हें ज्यादा अट्रेक्ट करता है। खासतौर पर लड़कियों को जो कि अभी तक बाप और भाई के सिक्युरिटी कवर में रहने की आदी होती हैं। फाइनेंशल और सिक्युरिटी जरूरतों की वजह से वे किसी लड़के का हाथ थाम लेती हैं। करियर की शुरुआती स्टेज में होने की वजह से वे लोग शादी जैसा कदम नहीं उठा पाते। ऐसे में बिना शादी किए पति-पत्नी की तरह साथ रहने के लिए उनके पास `लिव इन´ का ऑप्शन होता है।

धरती पर बन रही हैं जोडिया
यूथ को हमेशा से बदलाव और विद्रोह के लिए जाना जाता है। यही वजह है कि वह हमेशा कुछ नया करने की सोचता है। माना जाता है कि जोडिया स्वर्ग में बनती हैं, लेकिन माडर्न यूथ इस बात से इत्तफाक नहीं रखता। अब वह पैरंट्स द्वारा गले में घंटी की तरह से बांध दिए जाने वाले किसी भी लाइफ पार्टनर से बंधने के लिए तैयार नहीं है। वह स्वर्ग में बनी जोडियों को निभाने की बजाय धरती पर ही काफी सोच समझ कर जोड़ी बनाना चाहता है। अक्सर बड़े-बूढ़ों युवाओं को आशीर्वाद देते देखे जाते हैं कि तुम्हे अच्छा जीवनसाथी मिलें, क्योंकि उनका मानना होता है कि एक बार जो लाइफ पार्टनर आपसे जुड़ जाता है, उसे सारी जिंदगी निभाना होता है। जबकि यूथ इसके अपोजिट सोचने लगा है। अकाउंट्स प्रफेशनल अंकित कहते हैं, `मैं अपने परिवार वालों द्वारा मेरे साथ बांध दिए गए किसी भी पार्टनर के साथ अपनी सारी जिंदगी बर्बाद करने को तैयार नहीं हूँ। हमें उसके साथ कुछ दिन रहने और एक-दूसरे का जानने समझने का मौका मिलना चाहिए। अगर हमें एक-दूसरे का साथ भाता है, तो शादी कर लें। नहीं तो मैं अपने रास्ते और तुम अपने रास्ते।´

इक आग का दरिया है
भले ही युवा `लिव इन´ को एक अभिनव परिवर्तन के रूप में देख रहे हों, लेकिन अगर वास्तविकता के धरातल पर आकर देखा जाए, तो यह राह इतनी आसान नहीं है। शुरुआत में लड़कियों को भी लिव इन अच्छा लगता है। आखिरकार उन्हें हर वक्त साथ निभाने वाला पार्टनर जो मिल जाता है, लेकिन इस रिश्ते की कड़वी सच्चाई उन्हें तब पता लगती है, जब उनका साथी साथ छोड़ कर जाने की बात कहता है। ऐसे में पैरंट्स, समाज और यहां तक की कानून भी उनकी कोई मदद करने का राजी नहीं होता। और अगर वह प्रेग्नेंट हो गई है, तो उसके पास दुनिया की जिल्लतें और ताने सुनने के अलावा कोई चारा नहीं होता। मीडिया प्रफेशनल सारिका (बदला हुआ नाम )बताती हैं, `जब मैं मॉस कम्युनिकेशन का कोर्स कर रही थी, तो राहुल मेरी जिंदगी में आया। मैंने हॉस्टल छोड़कर उसके साथ रहना शुरू कर दिया। कोर्स के दौरान का वक्त काफी हंसी-खुशी बीता। उसके बाद उसे एक अच्छी जगह नौकरी मिल गई। साथ ही मैंने उसे एक और खुशखबरी सुनाई कि मैं उसके बच्चे की मां बनने वाली हूँ, तो वह मुझे छोड़कर भाग गया। मैं डिप्रेशन में आकर स्यूसाइड करने जा रही थी। वह तो शुक्र है कि मेरी कुछ फ्रेंड्स ने सहारा दिया और मेरा अबॉर्शन करवा दिया। सच में वह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी।´

चिंतित है कोर्ट और सरकार
तमाम तरह की परेशानियों की बावजूद `लिव इन´ में रहने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि अब सरकार को भी `लिव इन´ में रहकर परेशानियों का शिकार हो रही महिलाओं के बारे में सोचना पड़ रहा है। पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसके तहत क्रिमिनल प्रोसिजियर कोड की धारा 125 में बदलाव करके पर्याप्त समय से `लिव इन´ में रह रही महिला को पत्नी जैसे अधिकार देने की बात कहीं गई है। हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसे `लिव इन´ को बढ़ावा देने का प्रयास बताया है। समाज शास्त्री अभय कुमार दूबे कहते हैं, `मैं इस प्रस्ताव का स्वागत करता हूँ । बदलते वक्त में हमारे यहां सब कुछ बदल रहा है। पहले सिर्फ दिन में काम करने वाले युवा अब पूरी रात काम करने लगे हैं। ऐसे में उनकी सेक्सुअल जरूरतों में भी बदलाव आ रहा है। यही वजह है कि यूथ शादी की परंपरा को भी बदलना चाह रहा है। अगर पश्चिमी देशों पर नजर डालें, तो कई देशों में काफी लोग `लिव इन´ में रह रहे हैं। भारत में भी इस कॉन्सेप्ट को रोका नहीं जा सकता। इसलिए हमें इसमें रहने की आदत डालनी होगी। साथ ही लड़कियों की सुरक्षा के उपाय भी करने होंगे।´

महिलाओं के हित में है प्रस्ताव
महिला हितो के लिए काम करने वाले संगठन सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर रंजना कुमारी भी महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव का समर्थन करती हैं। उन्होंने बताया, `इस प्रस्ताव में ऐसी महिलाओं के हितों की बात की गई है, जिन्हें समाज, परिवार और पुरुष तिरस्कृत करते हैं। उन्हें तरह-तरह के अभद्र विशेषणों से नवाजा जाता है। जबकि पुरुष को कोई कुछ नहीं कहता। `लिव इन´ हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। पैसे और पावर के बल पर पुरुष हमेशा से पत्नी के अलावा किसी दूसरी औरत का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। वह उसे इस्तेमाल करके कभी भी छोड़ने के लिए स्वतंत्र होते हैं। इस तरह का कानून बनने के बाद उन्हें किसी औरत से फायदा उठाने से पहले सोचना होगा कि बाद में उसकी जिम्मेदारी भी उठानी होगी। इससे `लिव इन´ के मामलों में होने वाली धोखाधड़ी में कमी आएगी। और रही इस प्रस्ताव के विरोध की बात, तो मुझे लगता सिर्फ `लिव इन´ के नाम पर महिलाओं से फायदा उठाने वाले पुरुष ही इसका विरोध कर रहे हैं।´

Saturday 15 November, 2008

उगते सूरज को सलाम!


अक्सर लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को शिकायत रहती है कि उन्हें मीडिया कवरेज नहीं मिलती। इन शिकायतों में कितनी सच्चाई है। अगर ऐसा होता है, तो क्यों होता है? इन्हीं सारे सवालों का जवाब तलाशती एक रिपोर्ट:

एक जाने-माने हिंदी अखबार के ऑफिस के बाहर बैठा नौजवान काफी निराश और हताश नजर आ रहा है। वह एक क्रिकेटर है, जिसने एक लोकल टूर्नामेंट में बेहतरीन बॉलिंग की है। अगर अखबार में उसके बारे में कुछ छप जाए, तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है। इसी वजह से वह तीन दिनों से अखबार के ऑफिस के चक्कर काट रहा है। काफी कोशिश के बाद उसकी सिंगल कॉलम खबर छप गई। हालांकि वह नौजवान इससे कतई खुश नहीं था, क्योंकि वह फ्रंट पेज पर छपना चाहता था। इसलिए उसने अपने दम पर ऐसा करने की ठानी और एक दिन कामयाब भी हुआ। आज हम लोग उस नौजवान को भारतीय क्रिकेट टीम के चमकते सितारे फास्ट बॉलर प्रवीण कुमार के रूप में जानते हैं।
यह तो हुई प्रवीण कुमार की बात, जिन्होंने शुरुआती लेवल पर मीडिया की बहुत ज्यादा अटेंशन नहीं मिलने के बावजूद भी खुद को इस लायक बना लिया कि आज मीडिया उनके पीछे भागता है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे कितने भाग्यशाली खिलाड़ी होते हैं, जो लोकल लेवल से खेलकर कामयाब होते हैं? हरेक खेल से जुड़े जूनियर प्लेयर्स को यह शिकायत रहती है कि मीडिया में उनकी ज्यादा कवरेज नहीं होती, जिस वजह से उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलता। कई बार लोकल लेवल पर उभरने वाली कई प्रतिभाएं इसी वजह से सामने नहीं आ पातीं। सॉफ्टवेयर प्रफेशनल राजीव बताते हैं कि मैं बचपन में नैशनल लेवल पर फुटबॉल खेला था। इसके बावजूद मेरे पापा ने मुझे फुटबॉल में करियर नहीं बनाने दिया। जबकि वॉलिबॉल में स्टेट लेवल पर खेलने वाली मेरी फ्रेंड कीर्ति को आगे खेलने का मौका मिल गया, क्योंकि अखबार में उसका फोटो छपा था। काश किसी अखबार ने मेरा भी फोटो छाप दिया होता, तो आज मैं भी फुटबॉल प्लेयर होता।
आखिर क्या वजह है कि मीडिया हाउस लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को इतना अटेंशन नहीं देते? नई दिल्ली से छपने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के स्पोट्र्स इंचार्ज कहते हैं, `ऐसा कुछ नहीं है कि हम लोग लोकल या स्टेट लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स को कवरेज नहीं देते। हमने दिल्ली के कई टीनएजर्स को कवरेज देकर आगे बढ़ाया है। यह सच है कि हमारे लिए लोकल लेवल पर खेलने वाले प्लेयर्स के बीच टैलंट तलाशना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में अगर कोई प्लेयर खुद हमारे पास आता है, तो हम उसे जरूर अटेंशन देते हैं।´ जबकि जाने-माने क्रिकेट कोच संजय भारद्वाज इस मुद्दे को एक अलग नजरिए से देखते हैं, `वह कहते हैं कि अगर न्यूजपेपर एक लोकल प्लेयर की फोटो सचिन तेंडुलकर के बराबर में छाप दें,तो यह उसके साथ अन्याय होगा। अगर उन्हें लोकल लेवल पर ही अच्छी कवरेज मिलने लगेगी, तो उनमें आगे बढ़ने की तमन्ना खत्म हो जाएगी। साथ ही अगर आपको शुरुआती लेवल पर ही अच्छी कवरेज मिलने लगे, तो जल्द करियर खत्म हो जाने के चांस भी बढ़ जाते हैं। ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में होता है।´

Thursday 23 October, 2008

गर्लफ्रेंड दिला रही हैं सक्सेस



यह माना जाता है कि आगे बढ़ने के लिए लड़कियां लड़कों का सहारा लेती हैं। हालांकि आजकल अपोजिट ट्रेंड नजर आ रहा है। अब लड़के भी लड़कियों का हाथ थाम कर सफलता की राह पर आगे बढ़ने लगे हैं। यानी लड़कों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने में लड़कियां उनकी पूरी मदद कर रही हैं :
इन दिनों पूरी दुनिया में छाई आर्थिक मंदी की वजह से ज्यादातर कंपनियां कॉस्ट कटिंग में बिजी हैं। ऐसे में आदित्य की कंपनी कैसे अछूती रह सकती थी। मंदी का असर उसकी कंपनी पर भी पड़ा और कॉस्ट कटिंग के प्रोसेस के दौरान दूसरे ट्रेनी इंजीनियर्स के साथ आदित्य को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। लोन लेकर पढ़ाई पूरी करने वाले आदित्य की समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे। ऐसे में उसकी गर्लफ्रेंड सुमन ने उसकी पूरी मदद की। एक मल्टीनैशनल कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट में इग्जेक्युटिव सुमन ने आदित्य को हिम्मत बंधाई। उसने अपने लेवल पर न सिर्फ आदित्य का रिज्यूमे कई जगह फॉरवर्ड किया, बल्कि मार्केट के कई सीनियर लोगों से भी बात की। यह मार्केट में सुमन की अच्छी जान-पहचान का ही कमाल था कि आदित्य को कुछ समय में अच्छी जॉब मिल गई।
ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब कहा जाता था कि लड़कियां नौकरी या दूसरे कामों के लिए लड़कों का सहारा लेती हैं। लेकिन माडर्न एज में लड़कियां इतनी तेजी से ताकतवर होकर उभरी हैं कि लड़के भी सेटल होने के लिए उनकी मदद लेने लगे हैं। अब इसे खूबसूरत चेहरे का कमाल कहिए या फिर बेबाक अंदाज में बोलने का स्टाइल, लेकिन यह सच है कि लड़कियां अपने बॉस या इंडस्ट्री के सीनियर लोगों को लड़कों के मुकाबले जल्दी प्रभावित कर लेती हैं। इसी वजह से उन्हें बॉयफ्रेंड को सेटल कराने में ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ती।
अगर फिल्म इंडस्ट्री पर नजर डालें, तो यहां भी यह ट्रेंड बदस्तूर जारी है। अभी तक सलमान खान को कई हीरोइनों का करियर संवारने के लिए जाना जाता था, लेकिन अब हीरोज भी हीरोइनों की सहायता से करियर बनाने लगे हैं। क्या आप अभिषेक अवस्थी को जानते हैं? अगर याद नहीं आ रहा, तो अपनी याददाश्त को दोष न दें। अच्छा राखी सावंत के बॉयफ्रेंड से तो आप परिचित होंगे न। अब आपको ध्यान आ गया होगा कि हम किस अभिषेक अवस्थी की बात कर रहे हैं। दरअसल, राखी के नाम के सहारे उन्होंने जो पहचान बनाई, वह उनके नाम के साथ राखी का नाम लिए बिना पूरी ही नहीं होती। कुछ ऐसी कहानी `मॉनसून वेडिंग´ से अपने करियर की शुरुआत करने वाले रणदीप हुड्डा की भी है। रणदीप नाम सुनते ही सुष्मिता सेन के एक्स बॉयफ्रेंड का ध्यान आता है। सभी मानते हैं कि सुष्मिता ने अपनी पहुँच का प्रयोग करके रणदीप को कई फिल्में दिलवाई थीं।
गोविंदा के भांजे कृष्णा को अपने मामा का सपोर्ट तो मिला, लेकिन बिंदास कश्मीरा के साथ अफेयर ने उन्हें खूब पब्लिसिटी दिलवाई। पिछले साल के रियलिटी शो में दोनों जमकर साथ नाचे और दर्शकों की नजरों में चढ़ गए। उसी की बदौलत अब दोनों को नाम व काम मिल रहा है। इसी तरह लारा दत्ता के मॉडल बॉयफ्रेंड कैली दोरजी को भी लारा के साथ चले लंबे अफेयर की बदौलत मुफ्त की पब्लिसिटी मिल चुकी है। लंबे अफेयर के बावजूद कैली को लारा भले ही नहीं मिलीं, लेकिन इंडस्ट्री में अच्छी-खासी पहचान जरूर मिल गई है। ये नाम एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के लोगों की उस लिस्ट के चंद उदाहरण हैं, जो अपनी पहचान से ज्यादा अपनी गर्लफ्रेंड के नाम से जाने जाते हैं।
अब अध्ययन सुमन को ही लीजिए। शेखर सुमन के बेटे अध्ययन ने कुछ समय पहले इंडस्ट्री में कदम रखा है और उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद अध्ययन को किसी ने नोटिस नहीं किया। इसके बाद भट्ट कैंप ने अध्ययन `राज-2´ में कंगना के अपोजिट साइन किया और तब से दोनों के प्यार के चर्चे सभी की जुबां पर हैं। वैसे, अध्ययन से पहले हरमन बावेजा भी प्रियंका चोपड़ा का दामन थामकर लोकप्रियता पा चुके हैं। बता दें कि हरमन को उनके पापा हैरी बावेजा ने `लवस्टोरी 2050´ से लॉन्च किया था। हालांकि फिल्म की पब्लिसिटी में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन लोग उन्हें प्रियंका के बॉयफ्रेंड के तौर पर ज्यादा जानते हैं और इसी पॉपुलैरिटी के आधार पर हरमन को दिलचस्प ऑफर्स भी मिल रहे हैं।
भले ही हर फील्ड में काम कर रही लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड को सेटल करा रही हों, लेकिन कोई भी इस बात को खुलेआम स्वीकार करने को तैयार नहीं है। एक जानी-मानी कंपनी के एचआर हेड कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है कि लड़कियां अपने कॉन्टैक्ट की वजह से अपने बॉयफ्रेंड को नौकरी दिलवा देती हैं। हमारी कंपनी में नौकरी कैंडिडेट की क्वालिफिकेशन और काबिलियत को देखकर दी जाती है। इसके उलट एचआर इग्जेक्युटिव राजेश इस बात से सहमत हैं कि लड़कियां अपने कॉन्टैक्ट्स और पहुँच का इस्तेमाल करके बॉयफ्रेंड को जॉब दिलाने में मदद कर रही हैं। वह कहते हैं कि आजकल कॉम्पटीशन के युग में एक पोस्ट के लिए बहुत सारे लोग योग्यता रखते हैं। ऐसे में वही कामयाब होगा, जिसे अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलेगा। भले ही लड़कियां बॉयफ्रेंड नौकरी ना दिला पाएं, लेकिन उन्हें इंटरव्यू का चांस तो जरूर दिला देती हैं।

Thursday 16 October, 2008

अभी भी रात अँधेरी है!



भले ही आज भारत बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है, लेकिन महिलाओं की हालत में अपेक्षित सुधार नहीं आ पा रहा है। इस तरक्की का एक स्याह चेहरा यह भी है कि हमारे यहां पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चलने की कोशिश कर रही महिलाओं के लिए रात में काम करने का सुरक्षित माहौल मौजूद नहीं है। और तो और सिलेब्रिटी भी इस डर से अंजान नहीं हैं:

अक्सर गांवों या छोटे शहरों की लड़कियों द्वारा लड़कों की बराबरी करने की कोशिश करने पर उन्हें ताना दिया जाता है, `तू लड़कों की बराबरी कैसे करेगी। क्या तू रात को अकेली घर से बाहर जा सकती है?´ इस तरह उनके मां-बाप और रिश्तेदार लड़कियों पर लगाम लगाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। यह तो हुई गांवों और छोटे शहरों की बात। अब सवाल यह उठता है कि क्या बड़े शहरों खासतौर पर मेट्रोज में भी लड़कियों रात को अपने घर से बाहर निकल सकती हैं? क्या वहां नाइट शिफ्ट में काम करने वाली लड़कियां सुरक्षित अपने घर पहुँच पाती हैं।

हाल ही में एसोचैम सोशल डिवेलपमेंट फाउंडेशन द्वारा किए गए एक सर्वे में खुद महिलाओं ने इन सवालों का जवाब दिया है। सर्वे के नतीजों के मुताबिक यह एक कड़वा सच है कि महानगरों में नाइट शिफ्ट में काम करने वाली 53 परसेंट महिलाएं अपने आपको सेफ महसूस नहीं करतीं। इनमें बीपीओ, आईटी, सिविल एविएशन, नर्सिंग होम समेत सभी सेक्टरों में काम करने वाली महिलाएं शामिल हैं। यह सर्वे दिल्ली, मुंबई, चेन्नै, पुणे, बेंगलुरु, हैदराबाद और लुधियाना जैसे बड़े शहरों में किया गया है।

टीवी एक्ट्रेस जसवीर कौर रात को होने वाली छेड़खानी की घटनाओं से बखूबी वाकिफ हैं। वह कहती हैं, `मेरे साथ कई बार इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं, जब बाइक या गाड़ी सवार लड़कों ने मेरा पीछा किया। शुरुआत में मैं इस तरह की घटनाओं से बेहद डर जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे आदत पड़ गई है। हालांकि अब भी रात को मैं काफी सावधानी से सड़क पर निकलती हूँ । मेरी कोशिश रहती है कि मेरे गेटअप से किसी को यह आइडिया ना हो कि इस गाड़ी को कोई लड़की चला रही है। इसके अलावा आखिरी हथियार के रूप में एक खंजर हमेशा मेरे पास रहता है।´

मशहूर फैशन डिजाइनर मंदिरा विर्क महिलाओं के लिए बढ़ते क्राइम से काफी परेशान नजर आती हैं। उन्होंने बताया, `फैशन जैसी ग्लैमरस इंडस्ट्री से जुड़ी होने की वजह से मुझे अक्सर देर रात तक घर से बाहर रहना होता है। कई बार तो मैं अपना स्टोर ही 12 बजे तक बंद करती हूँ । ऐसे में खुद गाड़ी ड्राइव करके घर जाना कतई संभव नहीं है। इसके लिए मैंने ड्राइवर रखा हुआ है, जो मेरे घर में ही रहता है। इसके बावजूद रात को अगर कभी गाड़ी ड्राइव करनी पड़ जाती है, तो मुझे बहुत घबराहट होती है। कई बार लड़कों की गाड़ी और बाइक ने मेरा पीछा किया है। ऐसे में पुलिस बुलाने की बजाय जान बचाकर घर भागना ही बेहतर लगता है। हर वक्त बहुत सारी सावधानियां बरतनी पड़ती हैं और दिमाग में टेंशन रहती है, लेकिन क्या करें क्राइम के डर से काम बंद करके घर पर नहीं बैठ सकते।´

जानी-मानी न्यूज एंकर नीलम शर्मा इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि रात को महानगरों का माहौल महिलाओं के लिए कतई सुरक्षित नहीं है। वह कहती हैं, `मीडिया जैसे फील्ड में होने की वजह से अक्सर आपको नाइट शिफ्ट करनी पड़ती है या फिर ऑफिस से थोड़ा देर से निकलना होता है। ऐसे में एक महिला का सही-सलामत घर पहुंचना बेहद मुश्किल है। उस पर भी अगर वह अपनी गाड़ी खुद ड्राइव करके घर जाती है, तो बहुत मुश्किलें आती हैं।´ नीलम हाल ही में मौत का शिकार हुई एक अंग्रेजी न्यूज चैनल की पत्रकार सॉम्या विश्वनाथन का जिक्र करते हुए बताती हैं, `मैं भी अपने ऑफिस से कैब नहीं लेती और अपनी गाड़ी खुद ही ड्राइव करती हूँ । ऐसे में कई बार बहुत खराब कंडिशन बन जाती है। कहीं लड़कों की गाडियाँ पीछा करती हैं, तो कहीं रेड लाइट पर खड़े लफंगे परेशान करते हैं। ऐसे में अगर गाड़ी भी खराब हो जाए, तो फिर ऊपर वाला ही मालिक है।´

मुंबई बेस्ड रैंप मॉडल निगार खान अपने शहर की सुरक्षा व्यवस्था से कुछ हद तक संतुष्ट हैं। उन्होंने कहा, `मुंबई की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह शहर कभी सोता नहीं है। ऐसे में अगर आप अपना ख्याल रखना जानती हैं, तो आपको उतनी परेशानी नहीं आएगी। अगर आप अपनी ओर से ही केयर फुल नहीं हैं, तो फिर आपको प्रॉब्लम आ सकती है। मुझे लगता है कि दिल्ली और दूसरे महानगरों के मुकाबले मुंबई में लड़कियों के लिए रात का माहौल सुरक्षित है। हालांकि अपवाद हर जगह मौजूद हैं। वैसे अभी तक मुझे पर्सनली इस तरह की कोई परेशानी नहीं आई।´

पत्रकारिता जगत का जाना-माना नाम मानी जाने वाली वर्तिका नंदा की राय इस मामले में थोड़ा हट कर है। उन्होंने कहा, `मेरा मानना है कि कोई भी क्राइम होने के बाद उस पर रिएक्ट करने का हमारा तरीका सही नहीं है। इस तरह से क्राइम को और बढ़ावा मिलता है। और रही बात लड़कियों के रात को अनसेफ होने की, तो हम सिर्फ रात ही नहीं दिन में भी अनसेफ हैं। दिन में भी बसों में सफर करने वाली लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की जाती है। यही छेड़छाड़ रात को रेप और हत्या जैसे मामलों में बदल जाती है। इससे बचने के लिए पहले हमें दिन की घटनाओं पर रोक लगानी होगी। रात को अकेले ड्राइव करते वक्त कई बार मुझे भी डर लगता है। मुझे पता है कि जो लोग दिन में ही छेड़छाड़ का विरोध नहीं करते, रात को तो वे आपकी चीख को भी अनसुना कर देंगे। महिलाओं को खुद ही सावधानी बरतते हुए अपनी गाड़ी की बजाय ऑफिस की कैब का इस्तेमाल करना चाहिए।´

महिला हितों के लिए काम करने वाले संस्थान सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर डॉक्टर रंजना कुमारी का मानना है कि महिलाओं की सुरक्षा के बारे में हम लोग बहुत कुछ बोल चुके हैं और अब उस पर अमल करने की बारी है। यह सच है कि रात को काम करने वाली महिलाएं अपने मन में भय महसूस करती हैं। ऐसे में सरकार और पुलिस की जिम्मेदारी बनती है कि उनके भय को दूर करने के लिए उचित कदम उठाए जाएं। डॉक्टर रंजना अपने पर्सनल एक्सपीरियंस के बारे में बताती हैं, `एक बार मैं बस में आ रही थी, तो उसके कंडक्टर ने ही मेरे साथ बदतमीजी शुरू कर दी। जब मैंने उतरने की कोशिश की, तो उसने बस चलाकर मुझे गिरा दिया। यह तो दिन की घटना है। अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि रात को सड़कों पर क्या हाल होता होगा।´

Saturday 11 October, 2008

नशीली मस्ती में डूबे युवा


पार्टियों के शौकीन युवा इन दिनों रेव पार्टीज की ओर खूब आकर्षित हो रहे हैं, जहां उन्हें नशे में डूबकर थिरकने का भरपूर मौका मिलता है। ऐसी पार्टिया मुंबई ,दिल्ली जैसी हैपनिंग जगहों से लेकर पुष्कर जैसी जगहों पर भी हो रही हैं। आइये जानते हैं इन पार्टियों की दुनिया के बारे में:


अंधेरी रात में शहर से दूर स्थित एक फार्म हाउस में तेज आवाज में बजता वेस्टर्न म्यूजिक, चमचमाती लेजर लाइटें, फोग मशीन से लगातार निकलता धुआं और इसके बीच अपनी सुध-बुध खोकर नाचते सैकड़ों नौजवान! इन दिनों युवाओं के लेटेस्ट टशन `रेव पार्टीज´ का नजारा कुछ ऐसा ही होता है। ये लोग फार्महाउसों या नाइट क्लबों में आयोजित होने वाली इन पार्टियों में दुनिया से बेखबर होकर नाचते हैं। जाहिर है, इस मस्ती को शबाब पर लाने के लिए सुरूर का पूरा इंतजाम होता है और शराब व बीयर से आगे बढ़कर यहां ड्रग्स की भी कमी नहीं होती। ऐसी कई पार्टियों में युवाओं को ओपन सेक्स तक करते देखा जा सकता है। दरअसल, ऐसी स्वछंदता को देखते हुए ही इन पार्टियों को रेव कहा जाता है। रेव का मतलब होता है मनमर्जी करने की छूट।

तेजी से बढ़ रहा है चलन
हाल ही में मुंबई के जुहू स्थित एक नाइट क्लब में आयोजित रेव पार्टी से 38 लड़कियों समेत 231 युवाओं को गिरफ्तार किया गया है। इस घटना ने लंबे समय से विवाद का मुद्दा रहीं रेव पार्टियों को दोबारा चर्चा में ला दिया। गिरफ्तार किए गए इन युवाओं में फिल्म एक्टर शक्ति कपूर के बेटे सिद्धांत कपूर और आदित्य पंचोली की बेटी सना पंचोली भी शामिल हैं। इसके अलावा, पार्टी से ड्रग्स बेचने वाले नौ लोगो को भी गिरफ्तार किया गया है। इनके पास से चरस, गांजा और नशीली टेबलेट्स मिली हैं। इससे पहले 28 सितम्बर को ही सुबह तीन बजे पुष्कर में भी एक रेव पार्टी पकड़ी गई थी, जहां से 25 विदेशियों समेत 37 लोगों को में गिरफ्तार किया गया। उनके पास से बड़ी मात्रा में ब्राउन शुगर, बीयर और वाइन बरामद हुई। इससे पहले मार्च 2007 में पुणे में भी एक बड़ी रेव पार्टी पकड़ी गई थी। शहर से 30 किलोमीटर दूर आयोजित इस पार्टी से 29 लड़कियों समेत 251 यंग प्रफेशनल्स और स्टूडेंट्स गिरफ्तार किए गए थे। उन लोगों के पास से मारिजुआना और ड्रग्स मिली थीं।

दिल्ली एनसीआर भी हैं चपेट में
राजधानी और आसपास के इलाकों में तेजी से पैर पसार रहे ग्लोबल कल्चर ने यहां के युवाओं को भी रेव पार्टी की ओर आकर्षित किया है। पिछले दिनों फरीदाबाद और गुड़गांव जाने वाले रास्तों पर बने फार्महाउसों में इस तरह की पार्टिया होने की खबरें आई थीं। रिपोर्ट में बताया गया था कि डिस्कोथेक और पब पार्टी से ऊब गए युवाओं ने कुछ नया करने की चाहत में राजधानी से थोड़ी दूर स्थित इन फार्महाउसों को अपना ठिकाना बनाया है। रात जवां होने के साथ ही पुलिस और प्रशासन की नजरों से दूर शुरू होने वाली ये पार्टिया सुबह तक चलती हैं। गुड़गांव पुलिस भी इस तरह की पार्टियों का खुलासा भी कर चुकी है। इन पार्टियों के शौकीन युवा सिर्फ आधा या एक घंटा पहले फार्महाउस के मालिकों से संपर्क करते हैं और पहले से तय साथियों के साथ वहां जा पहुँचते हैं। उसके बाद शुरू होता है रात रंगीन करने का सिलसिला।

इंटरनेट पर फैला है साम्राज्य
अगर आप इंटरनेट पर `रेव पार्टी´ सर्च करते हैं, तो इससे जुड़ी दर्जनों साइट्स खुल जाती हैं। इन साइट्स में रेव पार्टी आयोजित करने से लेकर रेव पार्टी में पहली जानी वाली ड्रेसेज तक के बारे में तमाम तरह की जानकारियां उपलब्ध हैं। राजधानी की एक रेव पार्टी में हिस्सा ले चुके मोहित (बदला हुआ नाम) ने बताया, `आमतौर पर रेव पार्टिया पुलिस के डर से शहर से दूर स्थित फार्महाउसों में आयोजित की जाती हैं। वेन्यू पर माहौल सजाने के लिए डीजे, लाइट के साथ-साथ ड्रग्स और ड्रिंक्स का भी इंतजाम रहता है। आमतौर पर 18 से 25 वर्ष की उम्र के युवाओं को रेव पार्टी में इंवाइट किया जाता है, लेकिन ऐसी पार्टियों में कोई एज लिमिट नहीं है। बस कोशिश यही होती है कि यहां सब कुछ भूलकर सब कुछ करने की चाह रखने वाले लोग ही आएं।´

क्या है पॉपुलैरिटी की वजह
इन पार्टियों में रईसजादों के बच्चे, यंग प्रफेशनल्स और स्टूडेंट्स की बड़ी संख्या में रहते हैं। इसकी वजह के बारे में साइकिएटि्रस्ट डॉक्टर समीर पारिख कहते हैं, `आजकल का युवा ग्लैमर के पीछे भाग रहा है। साथ ही उसमें एक्सपेरिमेंट की करने की चाहत भी तेजी से पनप रही है। ऐसे में खुद को माडर्न दिखाने की चाह में वह इस तरह की पार्टियों में शामिल हो जाता है। मजे-मजे में ड्रग्स आजमाई जाती हैं और फिर वे हमेशा के लिए इन चीजों के गुलाम हो जाते हैं।´ जबकि साइकॉलजिस्ट अरुणा ब्रूटा का मानना है, `आजकल का युवा माडर्न और ग्लैमरस बनने की चाह में गलत रास्ते पर चलने में भी परहेज नहीं करता। यही वजह है कि मस्ती का अड्डा कहलाई जाने वाली ये पार्टिया कई बार फ्रस्ट्रेशन निकालने का रास्ता भी बनती हैं। इन पार्टियों में नशे के दम के बीच खुद को भुलाकर युवा अपना गम गलत करते हैं।´

नई जेनरेशन के नए कायदे
सीएसडीएस से जुड़े समाजशास्त्री अभय कुमार दूबे बदलते लाइफस्टाइल को युवाओं के रेव पार्टीज की ओर आकर्षित होने की वजह मानते हैं। उन्होंने बताया, `ग्लोबलाइजेशन की वजह से आजकल के युवाओं के काम करने के साथ एंजॉय करने का तरीका भी बदल गया है। पहले लोगों के पास काम का ज्यादा दबाव नहीं था, जबकि आज का युवा दिन-रात सिर्फ काम में जुटा हुआ है। मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट के दरवाजों पर अक्सर `वर्क हार्ड एंड पार्टी हार्डर´ लिखा रहता है। यही वजह है कि युवा अब काम के वक्त भरपूर काम और मस्ती के वक्त भरपूर मस्ती को फॉलो करते हैं। मुझे रेव पार्टी में कोई बुराई नजर नहीं आती। बदलते वक्त के साथ हमें अपनी नैतिकता की कसौटी को चेंज करना होगा। अगर हम अभी भी पुरानी नैतिकता का चश्मा लगाए रखेंगे, तो हमें हरेक नौजवान बुरा ही दिखाई देगा।´

संभव है रोक
जाने-माने वकील प्रशांत भूषण कहते हैं, `वैसे तो सरकार की ओर से शराब और म्यूजिक के साथ पार्टी आयोजित करने पर कोई रोक नहीं है। लेकिन ऐसी जगहों पर ड्रग्स जाए जाने पर पार्टी में मौजूद लोगों को ड्रग्स कंट्रोल एक्ट के तहत सजा हो सकती है।´ दिल्ली पुलिस के डीसीपी देवेश श्रीवास्तव ने बताया, `रेव पार्टी में पकड़े गए लोगों को उनके पास मौजूद ड्रग्स की मात्रा के मुताबिक कम या ज्यादा पीरियड की सजा हो सकती है। साथ ही,ड्रग्स का सेवन करने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान है।

Friday 26 September, 2008

अब टैबू नहीं रहा सेक्स


`प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल.....´ यह सिर्फ 1955 में आई राजकपूर और नरगिस की सुपरहिट फिल्म `श्री 420´ का एक गाना ही नहीं, बल्कि उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। नब्बे के दशक में भारतीय टेलिविजन पर आने वाले गर्भनिरोधक कंडोम `निरोध´ के ऐड को इसी गाने के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता था। यह उस वक्त भारतीय टेलिविजन की नजाकत ही थी कि सिर्फ प्यार से जुड़ा यह गाना सुनाकर ही मान लिया जाता था कि लोग गर्भनिरोधक के बारे में सब कुछ समझ गई होगी। पता नहीं सभी बड़े इसे समझ पाते होंगे या नहीं, लेकिन यह तो तय है कि बच्चे इसे नहीं समझ पाते थे।
जो बच्चे इसे समझ नहीं पाते थे, उन्हें इसे समझने की कोशिश करने का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था। सॉफ्टवेयर प्रफेशनल मनीष बताते हैं कि उस वक्त मेरी उम्र करीब 10 साल रही होगी, जब टेलिविजन पर निरोध का `प्यार हुआ.....´ वाला ऐड आया करता था। रोजाना ऐड देखने के बावजूद मैं कभी भी यह नहीं पाता था कि यह किस चीज का ऐड है। यहां तक की मेरे दोस्तों को भी इस बारे में जानकारी नहीं थी। ऐड को लेकर मेरी उत्सुकता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। एक दिन मैंने हिम्मत करके दादा जी से उसके बारे में पूछ ही लिया। मैंने सोचा था कि दादा जी मुझे उस बारे में जानकारी देंगे, लेकिन यहां तो मामला उलटा पड़ गया। वह छूटते ही मेरे एक उलटे हाथ का तमाचा रसीद करते हुए बोले कि आजकल पढ़ाई-लिखाई में तुम्हारा बिल्कुल मन नहीं रह गया है। चुपचाप जाकर स्कूल का काम पूरा कर लो। उस वक्त मेरा बाल मन यह बिल्कुल नहीं समझ पाया था कि कभी मुझे उंगली भी टच नहीं करने वाले दादा जी ने मुझे इतनी जोर से तमाचा क्यों मारा?´
ऐसा नहीं है कि सिर्फ अकेले मनीष ही इस तरह की घटना के शिकार हुए थे। उस वक्त सेक्स को इतना बड़ा टैबू माना जाता था कि उनकी उम्र के काफी बच्चे इस तरह की परेशानियों के शिकार होते थे। सीए स्टडेंट आदित्य कहते हैं, `मुझे अच्छी तरह याद है कि टेलिविजन पर `प्यार हुआ इकरार हुआ.....´ गाना शुरू होते ही दादा जी मुझको पानी लेने भेज दिया करते थे। हालांकि मैं चोरी छुपे कई बार उस ऐड को देख चुका था, लेकिन उस वक्त यह मेरे लिए बहुत बड़ी प्रॉब्लम यह थी कि आखिर दादा जी को यह गाना शुरू होते ही प्यास क्यों लगती थी?´ रिटायर्ड गारमेंट सर्वेंट मनोहर लाल ने बताया, `यह सच है कि उस वक्त हम लोग या हमारे पैरंट्स बच्चों को निरोध के उस इकलौते ऐड से दूर रखना चाहते थे। दरअसल, हमारे लिए अपने बच्चों को यह समझाना काफी मुश्किल काम था कि निरोध क्या होता है। इसका क्या यूज किया जाता है? इसलिए इस ऐड के आने के वक्त उन्हें कोई बहाना बनाकर या डरा धमका टीवी से दूर कर दिया जाता था।´
उस वक्त के मुकाबले आज जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। अब तो टेलिविजन और अखबारों में कॉन्डम के एक से एक उत्तेजक ऐड छाए रहते हैं। फिल्मों में डबल मीनिंग सेंटेंस और हॉट सींस की भरमार है। इसके बावजूद किसी को कोई परेशानी नहीं है। पूरा परिवार एक साथ बैठकर किसी पिक्चर में चल रहे बैडरूम या किस सीन को देखने में कोई परेशानी महसूस नहीं करता। छोटे-छोटे बच्चों को पहले से पता है कि इस सीन में क्या होने वाला है। सीए राजीव बताते हैं, `मैं अपने और छोटे भाई के बच्चों के साथ बैठ कर मूवी देख रहा था। जैसे ही हीरो-हीरोइन एक-दूसरे को किस करने के लिए पास आए, तो मैंने बच्चों की नजरों से बचाने के लिए सीन फॉरवर्ड कर दिया। तभी मेरे 10 साल के लड़के ने पूछा कि पापा इस सीन में क्या हुआ? इससे पहले कि मैं उसे कुछ जवाब दे पाता। मेरे छोटे भाई का 7 साल का लड़का बोल पड़ा कि भैया हीरो ने हीरोइन को किस किया है। उसकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। मैं चाहता था कि बच्चों को इस तरह के सींस से दूर रखूं, लेकिन लगता है कि टेलिविजन के होते ऐसा कभी संभव नहीं है।´
जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार बताते हैं, `यह सूचना क्रांति का ही परिणाम है कि आजकल के बच्चों को परिवार के दायरों के बाहर वाले स्रोतों से सेक्स से जुड़ी जानकारियां मिल रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस वक्त खुद राज्य ने आम लोगों को यौन संबंधों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उठा लिया है। जब सरकार खुद खुलेआम यह प्रचार कर रही है कि कंडोम साथ लेकर चलें, तो दूसरे को क्या कहा जा सकता है। यह भी सच है कि कहीं ना कहीं कमर्शल कंपनियों द्वारा सरकार के इन कदमों का फायदा उठाया जा रहा है। हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए कि कहीं हम पश्चिमी देशों की तरह टीनएज प्रेग्नेंसी जैसी परेशानियों का शिकार ना हो जाएं और समस्या सुलझने की बजाय उलझ ना जाएं। गौरतलब है कि इस वक्त अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार और अलास्का प्रांत की गवर्नर सारा पेलिन की 17 वर्षीय अविवाहित बेटी प्रेग्नेंट है।´

कुछ ऐसे बदल रही है फिजा

जो समझा वही सिकंदर
यह बेहद आश्चर्य की बात है कि जिस देश के लोग मेडिकल स्टोर पर कंडोम मांगते हुए शर्माते हैं। वहां `कंडोम...कंडोम....´ रिंगटोन को काफी पसंद किया जा रहा है। पिछले दिनों बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट ने कंडोम का इस्तेमाल बढ़ाने के लक्ष्य के साथ इस रिंगटोन को तैयार किया है। इस ऐड कैंपेन की कैच लाइन `जो समझा वही सिकंदर´ है। इसके माध्यम से यह दिखाया जाएगा कि जो लोग कंडोम का इस्तेमाल करने और बोलने में घबराते नहीं हैं, वे समझदार होते हैं। हैरानी की बात यह है कि अपने लॉन्च के कुछ ही दिनों में इस रिंगटोन ने नंबर वन लोकप्रिय रिंगटोन की कुर्सी कब्ज़ा ली है।

सेक्स एजुकेशन कोर्स
ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब स्कूलों में सेक्स एजुकेशन कोर्स स्टार्ट करने को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था। इसी वजह से अभी तक स्कूलों में सेक्स एजुकेशन शुरू नहीं हो पाई है। इसके बावजूद हाल ही में ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ने जल्द शादी करने जा रहे युवाओं के लिए सेक्स एजुकेशन कोर्स शुरू किया है। इसके रिस्पॉन्स का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक काफी बुजुर्ग इन्सान भी इस कोर्स में एडमिशन में लेने पहुंच गए थे, जिन्हें बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर वापस भेजा गया। इस कोर्स का एक बैच पास आउट हो गया है। इस कोर्स के दौरान उन्हें शादी के बाद सेक्स के दौरान आने वाली परेशानियों के समाधान के बारे में बताया गया है।

फीमेल कंडोम
हमारे देश में अभी भी काफी संख्या में पुरुष कंडोम का यूज करना पसंद नहीं करते। ऐसे में अगर यहां फीमेल कंडोम को सफलता मिल रही है, तो यह आश्चर्य की ही बात होगी। दुनिया भर की महिला कार्यकर्ताओं का मानना है कि फीमेल कंडोम को लोकप्रिय बनाने में ग्लोबल स्तर पर नाकामयाबी हाथ लगी है। लेकिन भारत उन चंद अपवाद देशों में शामिल है, जहां फीमेल कंडोम को 97 परसेंट तक स्वीकार किया गया है। यही वजह है कि फिलहाल काफी महंगे इस फीमेल कंडोम को जल्द ही देशभर में मात्र तीन रुपए में उपलब्ध कराए जाने का प्लान है। ताकि एड्स से बचाव के मिशन पर ज्यादा अच्छी तरह काम किया जा सके।

Wednesday 24 September, 2008

किसी को नहीं चाहिए `लक्ष्मी´


हमारे समाज में लड़की को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। वैसे तो हर कोई चाहता है कि उसका घर हमेशा लक्ष्मी से भरा रहे। लेकिन जब बात इस लक्ष्मी की आती है, तो क्या अमीर क्या गरीब सभी नाक भौंह सिकोड़ने लगते हैं। यह समाज की कड़वी सच्चाई है कि असली लक्ष्मी के स्वागत के लिए कोई भी तैयार नहीं है:

एक अजन्मी बच्ची अपनी मां की कोख में निश्चिंत भाव से खेल रही थी। भले ही अभी उसने यह सतरंगी दुनिया नहीं देखी है, लेकिन मां की सहायता से वह इसके बारे में काफी कुछ जान गई है। कहा जाता है कि बच्चे मां की कोख में रहने के दौरान ही उससे काफी कुछ सीख लेते हैं। इसका एक उदाहरण मां की कोख में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख लेने वाला अभिमन्यु भी है। इसी तरह इस बच्ची की आंखों में भी अभी से ही दुनिया को जीतने के सुनहरे सपने हैं। दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह अपनी मां की कोख में वह इतनी खुश है कि उसकी चपलता देखकर उस खुशी को बड़ी आसानी से महसूस किया जा सकता है।
लेकिन यह क्या अचानक वह कांपने लगती है। उसके दिल की धड़कन बहुत तेज चलने लगती है। अपनी ओर तेजी से बढ़ती एक मशीन को देखकर बच्ची को काफी घबराहट हो रही है। बचने के लिए बच्ची ने इधर-उधर भागने की कोशिश की, लेकिन भाग नहीं सकी। मौत को बहुत करीब आया देखकर वह छटपटाई भी गिड़गिड़ाई भी, लेकिन सब बेकार। किसी भी चीज को बेहद तेजी से अपने अंदर खींच लेने वाली मशीन ने उस भ्रूण रूपी बच्ची को भी अपने अंदर खींच लिया। और वह बच्ची इस रंग-बिरंगी दुनिया से रूबरू होने के सुनहरे सपने आंखों में बसाए दुनिया में आने से पहले ही अलविदा हो गई। बचे थे तो सिर्फ बच्ची के कोमल शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े, ढेर सारा खून और एक खामोशी....
यह कोई फीचर फिल्म नहीं, बल्कि किसी अजन्मे बच्चे के अबॉर्शन का दृश्य है। भले ही पढ़ने और देखने वालों को यह बड़ा दर्दनाक महसूस हो रहा हो, लेकिन ऐसे दृश्य हमारे देश में रोजाना ना जाने कितनी बार दोहराए जाते हैं। न जाने कितनी बच्चियां रोजाना उनके `अपनों´ की वजह से दुनिया में आने से पहले ही काल के गाल में समा जाती हैं। कल को इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, प्रतिभा पाटिल और कल्पना चावला बनने की कूवत रखने वाली उन बच्चियों को अपनी असमय और दर्दनाक मृत्यु से ज्यादा दुख इसी बात का होता है कि उन्हें इस दर्दनाक तरीके से मौत देने वाले उनके `अपने´ ही होते हैं। वैसे तो नारी को दया और त्याग की प्रतिमूर्ति माना जाता है, लेकिन उन्हें उस बच्ची के दर्द का बिल्कुल अहसास नहीं होता जिसे वे `कुलदीपक´ की चाहत में कुर्बान कर रही हैं। यह एक दर्दनाक सच्चाई है कि इन अजन्मी बच्चियों की सबसे बड़ी दुश्मन उनकी दादी, मम्मी और बुआ ही होती हैं।

जब अपने ही बने दुश्मन
अक्सर महिलाओ से जुड़े कार्यक्रमों में हम लोग महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ते नजर आते हैं, लेकिन उससे पहले एक बार अपने गिरेबान में झांककर देखें कि वाकई हम इसके लिए तैयार हैं। यह समाज से जुड़ी एक कड़वी सच्चाई है कि इन कसीदे पढ़ने वालों में ना जाने कितनों ने अपनी ही बच्ची को जन्म लेने से पहले ही मौत की नींद सुला दिया होगा। अक्सर हम लोग यह कहकर अपने आपको को झूठा दिलासा देते हैं कि आजकल समाज की सोच बदल रही है। पढ़े-लिखे लोग लड़के और लड़कियों को एक ही नजर से देखते हैं। वे उन्हें पढ़ाई और दूसरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में कोई भेदभाव नहीं करते। लेकिन यह बातें सिर्फ कहने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं। सच यह है कि चाहे अमीर हो या गरीब लड़कियों के मामले में सबकी सोच एक जैसी ही है। भले ही हम ऊपर से लड़की को लक्ष्मी का रूप मानते हैं, लेकिन असलियत में कोई नहीं चाहता कि वह `लक्ष्मी´ उसके घर आए।

राजधानी में घटता सेक्स रेशो
पिछले दिनों एक एनजीओ सेंटर फॉर सोशल रिसर्च द्वारा किए गए एक सर्वे में यह शर्मनाक तथ्य सामने आए हैं कि देश की राजधानी दिल्ली कन्या भ्रूणों की हत्या के मामले में भी `राजधानी´ है। 2007 में किए गए एक प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लेनसट के सर्वे के मुताबिक राजधानी और एनसीआर में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 762 लड़कियां मौजूद हैं। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में यह अनुपात 1000 के मुकाबले 886 था। जबकि उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों पर 927 लड़कियां था। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि देश के धनी राज्य माने जाने वाले दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र अजन्मी लड़कियों के लिए कत्लगाह के रूप में सामने आए हैं। इन आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि हम लोग धरती को लड़कियों से मुक्त करने के निर्मम मिशन पर बेहद तेजी से काम कर रहे हैं। हमें उस पल का बिल्कुल अंदाजा नहीं है, जब लड़कियों की कमी की वजह से कई लोगों को कुंवारा रहना होगा। अभी भी कई राज्यों में लड़कियों की कमी की वजह से केरल और उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों से दुल्हनें खरीद कर लाने की नौबत आ चुकी है।

लड़की पराया धन होती है?
अफसोस की बात यह है कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे हम लोगों के ख्यालात अभी भी सत्तरहवीं सदी वाले ही हैं। सर्वे में बताया गया है कि हम लोग अभी भी उसी लकीर को पीट रहे हैं कि लड़की पराया धन होती है, जिसे कल को दूसरे घर जाना होता है। इसलिए उसकी पढ़ाई-लिखाई पर पैसा खर्च करने से कोई फायदा नहीं है। पढ़ाई पर पैसा खर्च करने के बाद भी दहेज देना पड़ेगा। जबकि लड़के बुढ़ापे का सहारा होते हैं, वंश चलाते हैं और माता-पिता का अंतिम संस्कार करते हैं। अब हम लोगों को कौन समझाए कि सच्चाई इसके उलट है। अगर वास्तविकता के धरातल पर आकर सोचा जाए, तो पता चलेगा कि आजकल लड़कियों से पहले लड़के घर छोड़कर चले जाते हैं। आज के युग में ज्यादातर बच्चें बारहवीं के बाद ही आगे की पढ़ाई करने के लिए दूसरे शहर चले जाते हैं। उसके बाद वे लगातार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक दिन इतना ऊपर पहुँच जाते हैं कि मां-बाप को भी नजर आना बंद हो जाते हैं। जी हां, पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़के विदेशों या बड़े शहरों में `अपनी फैमिली´ के साथ सेट हो जाते हैं। जबकि मां-बाप उनके कभी-कभी घर आने की बाट जोहते रहते हैं। इनमें से विदेशों में रहने वाले कई `सुपुत्र´ तो ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने मां-बाप के अंतिम संस्कार के वक्त आना भी गवारा नहीं होता।

बदल रही है फिजा
अगर खुले दिमाग से सोचा जाए, तो वह जमाने लद गए जब लड़कियां अपने मां-बाप पर बोझ हुआ करती थीं। आधुनिक समाज में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जहां लड़के मां-बाप को छोड़कर चले गए और लड़कियों ने उन्हें सहारा दिया है। 55 वर्षीय सुषमा बताती हैं, `शादी के पांच साल बाद ही मेरे पति की एक एक्सीडेंट में डेथ हो गई थी। मैंने नौकरी करके अपनी दोनों लड़कियों और एक लड़के को पढ़ाया है। लड़का शादी के बाद विदेश चला गया है। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती, इसलिए मैं बड़ी लड़की-दामाद के पास रहती हूँ ।´ साथ ही सिर्फ दहेज के लिए कन्या भ्रूण हत्या करने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि अगर लड़की पढ़ी-लिखी और कमाऊ है, तो उसे दहेज की जरूरत नहीं पड़ती। सुषमा कहती हैं, `मेरी दोनों लड़कियां अच्छी नौकरी कर रही हैं। इसलिए उनके ससुराल वालों ने दहेज की कोई डिमांड नहीं की।´ अपने क्लीनिक के बाहर `अभी पांच हजार खर्च करें और भविष्य के पांच लाख रुपए बचाएं´ जैसे घृणित विज्ञापन लगाने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि पैसा सिर्फ लड़कियों के दहेज पर ही खर्च नहीं होता। अगर कोई इंसान अपने लड़के को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहता है, तो उसे पढ़ाई में दस से बीस लाख तक रुपए तक खर्च करने को तैयार रहना चाहिए।

Saturday 20 September, 2008

बहुत दिनों बाद आईआईएमसी में.....



कल एक अरसे बाद जेएनयू कैंपस स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन (IIMC) जाना हुआ। यह वही जगह है, जहां मैंने अपनी जिंदगी का स्वर्णिम वक्त बिताया है। वाकई उन दिनों की यादें मेरे दिलोदिमाग में कुछ इस तरह से बस गई हैं कि 615 नंबर की मिंटो रोड से पूर्वाचंल हॉस्टल जाने वाली बस में बैठते ही ऐसे ताजा हो गई, मानो कब से इसी पल का इंतजार था। उन दिनों हम स्टूडेंट पास से इस बस में मुफ्त सफर किया करते थे। सो कंडक्टर के टिकट कहते ही मुंह से अनायास ही `पास´ निकल पड़ा। लेकिन तभी मैंने वर्तमान में वापसी करते हुए कंडक्टर को वापस बुलाकर कहा कि पास खत्म हो गया, लो पूर्वाचंल हॉस्टल की टिकट काट दो।
जेएनयू से बस गुजरने के दौरान वहां के हसीन नजारों, गंगा ढाबे पर बिताई शामों और मामू के ढाबे पर किए कई बेहतरीन लंच की यादों को याद करता हुआ, मैं पूर्वाचंल हॉस्टल पहुंच गया। हालांकि मैं घर से नाश्ता करके गया था, लेकिन वहां की फेमस परांठे वाले की दुकान ने अपनी और खींच ही लिया। अभी अभिनीत और रश्मि के आने में वक्त था। इसलिए थोड़ी देर रुक कर परांठों का आनंद लेने में कोई बुराई नहीं थी। यह अभिनीत का ही प्रोग्राम था जिस वजह से बहुत दिनों बाद मैं आईआईएमसी गया था। वहां पर आलू-छोले की सब्जी और दही के साथ गर्मागर्म आलू और सत्तू के परांठे खाते वक्त मुझे वह दिन याद आ रहे थे, जब भरी सर्दी के दिनों में हम लोग लंच ब्रेक के दौरान वहां परांठे खाने आया करते थे। वाकई कंपकंपाती सर्दी में वहां धूप में बैठकर परांठे खाने का मजा ही कुछ और हुआ करता था।
पेट से ज्यादा मन की क्षुधा तृप्त करने के बाद मैंने पूर्वाचंल हॉस्टल से आईआईएमसी ओर जाने वाली पगडंडी का रुख किया। उस वक्त मैं अपने पुराने रूम मेट विवेकानंद और पवन को बेहद मिस कर रहा था, जिनके साथ किसी वक्त में मैं पूरे नौ महीने तक रोजाना वह सफर तय किया करता था। ऐसा लग रहा था, मानों अभी विवेकानंद की आवाज आएगी, `अमां यार प्रशांत जरा तेज कदम बढ़ाओ।´ इन्हीं यादों में खोए हुए इंस्टिट्यूट का एंट्री गेट और गल्र्स हॉस्टल आ गया। हालांकि अब पिछले कई सालों से बन रहा बॉयज हॉस्टल भी तैयार होता नजर आया, लेकिन सुनने में आ रहा है कि वह भी लड़कियों को ही दिया जाएगा। और हम जैसे बॉयज स्टूडेंट मुनिरका, बेरसराय और कटवारिया सराय की तंग गलियों में ही अपने कोर्स के नौ महीने काटने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
खैर मैं अभिनीत से मिलने के लिए पहले से तय की गई जगह मुरली के टपरे पर पहुँच गया। मुरली का टपरा आईआईएमसी के पिछले हिस्से में बनी चाय की दुकान को कहा जाता है। जहां चट्टान जैसे पत्थरों पर बैठकर स्टूडेंट चाय की चुस्कियों के साथ बौद्धिक जुगाली करते हैं। हैरान ना हों, देश के प्रीमियर मॉस कॉम इंस्टिट्यूट के स्टूडेंट्स से यह अपेक्षा की जाती है कि वे चाय पीते वक्त भी साथियों के साथ सम-सामयिक मुद्दों पर गर्मागर्म बहसें करें। और अक्सर हम लोग वहां बैठकर यही किया करते थे। हमारे कुछ साथी इस दौरान सिगरेट की सहायता भी लिया करते थे। तभी हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स कुछ स्टूडेंट वहां आ गए और चाय के साथ सिगरेट के कश मारने लगे।
यहां यह बात विचारणीय है कि मैंने पहली बार में ही ऐसा कैसे सोच लिया कि वे हिंदी के स्टूडेंट नहीं थे। दरअसल, उन्हें देखकर मुझे इंस्टिट्यूट में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई। जब इसी जगह पर मैं लड़कियों को सिगरेट पीता देखकर आश्चर्यचकित हो गया था। हमारे मेरठ के कॉलेजों में में तो लड़के-लड़कियों के थोड़ी देर कहीं बैठकर बात करने पर ही प्रोफेसर टोक दिया करते थे और यहां लड़का-लड़की साथ में सिगरेट पी रहे थे! इस सच को स्वीकार करने में मुझे थोड़ा वक्त लगा था। हमारे वक्त में भी सिगरेट के कश मारते वे कपल हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स के स्टूडेंट हुआ करते थे और आज भी वे दूसरे कोर्सो के ही स्टूडेंट थे। इसकी पुष्टि मैंने उनसे बातचीत करके कर ली। पता नहीं क्यों, मुझे अभी भी यकीन है कि हिंदी कोर्स के स्टूडेंट अभी इतने आधुनिक नहीं हुए हैं कि लड़का-लड़की साथ बैठकर सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाएं।
खैर तभी सामने से आते अभिनीत और रश्मि दिखाई पड़ गए और मैं अपनी स्मृति यात्रा को यहीं विराम देकर उनकी ओर चल पड़ा!

Saturday 13 September, 2008

हिंदी भाषी देश में हिंदी भाषियों को खतरा!


आज हिंदी दिवस है। पिछले कुछ वक्त तक हिंदी दिवस को देश भर में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता था। लेकिन कुछ हालिया घटनाओं पर नजर डाली जाए, तो अब उस हंसी-खुशी के माहौल में काफी कड़वाहट घुल चुकी है। हाल ही में जया बच्चन के अपने आपको हिंदी भाषी बताने पर मुंबई में मराठी अस्मिता के तथाकथित ठेकेदारों ने इतना हंगामा किया कि पूरा देश हैरान रह गया। उनके निशाने पर सिर्फ जया ही नहीं, बल्कि पूरा बच्चन परिवार था। आश्चर्य की बात यह है कि भाषावाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले ये चंद लोग इतने ताकतवर हैं कि इनके आगे समूचा मुंबई प्रशासन बौना नजर आया। मुंबई पुलिस कमिश्नर को बिना वर्दी के सड़क पर आकर मुकाबला करने की चुनौती मिलना कोई मजाक बात नहीं है।
इसी का नतीजा है कि अमिताभ बच्चन की हालिया रिलीज `द लास्ट लियर´ का बुधवार को मुंबई में आयोजित प्रीमियर हंगामे के डर से रद्द हो गया। पुलिस प्रशासन को मुट्ठी भर लोगों के आगे इतना बेबस देखकर अमिताभ बच्चन के सामने माफी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। उन्होंने अपनी कोई गलती नहीं होने बावजूद उनके अंह की तुष्टि के लिए देश भर के मीडिया के सामने माफी मांग कर इस विवाद को विराम दे दिया। मराठी अस्मिता के इन तथाकथित ठेकेदारों के संस्कारों का अंदाजा राज्य सभा सांसद और वरिष्ठ अभिनेत्री जया बच्चन के लिए एक बयान से लगाया जा सकता है। इस बयान में कहा गया था, `गुड्डी बुड्डी हो गई है, लेकिन अक्ल नहीं आई।´ शायद ही पूरे भारत में कहीं भी अपने बड़ों के लिए इस तरह के शब्द प्रयोग नहीं किए जाते होंगे।
ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब मुंबई में बिहार और यूपी के हिंदी भाषी लोगों पर कहर बरपा था। राजनीति की रोटियां सेंकते वक्त नेता लोग यह भूल जाते हैं कि ये बेचारे लोग अपना घर-बार छोड़ कर यहां किसी मजबूरी की वजह से ही आए हुए हैं। साथ ही वे लोग यह भी भूल जाते हैं कि इन बेचारे मजबूर लोगों ने माया नगरी कही जाने वाली मुंबई के विकास में कितना योगदान दिया है। पिछले दिनों ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भारतीय लोगों के लिए शुक्रिया जताते हुए कहा था, `मैं भारतीय लोगों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने हमारे देश के विकास में इतना योगदान दिया। भारतीय लोगों के सहयोग के बिना हम लोग ब्रिटेन को इतनी ऊंचाई पर लाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।´ ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब एक विदेशी किसी दूसरे देश से आए लोगों की तहेदिल से तारीफ कर सकता है, तो एक देश के वासी, एक ही मां के बेटे सिर्फ चंद वोटों की खातिर एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो रहे हैं?

Monday 8 September, 2008

मनभावन तीर्थ है श्री महावीर जी



राजस्थान के करौली जिले में स्थित जैन तीर्थ श्री महावीर जी, जैन धर्म के साथ दूसरे लोगों के बीच भी अपार श्रद्धा का केंद्र है। आमतौर पर हमारे देश में एक शिखर वाले मंदिर बहुतायत में हैं, लेकिन यहां स्थित तीन शिखर वाले मंदिर की बात ही कुछ और है। इस मंदिर में देश-विदेश से जैन धर्मानुयायियों के अलावा पूरे राजस्थान से गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी आते हैं। यही वजह है कि हर साल महावीर जयंती के मौके पर यहां लगने वाले मेले में जैनियों के अलावा दूसरे संप्रदायों के लोग भी काफी संख्या में आते हैं। इस मेले को राजस्थान टूरिज़म प्रदेश के महत्वपूर्ण आयोजनों में से एक मानता है।
नई दिल्ली स्टेशन से सुबह साढ़े सात बजे स्वर्ण मंदिर मेल से हमारी यात्रा की शुरुआत हुई। श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा, केवलादेव पक्षी विहार के लिए प्रसिद्ध भरतपुर और बयाना जंक्शन पर रुकती हुई ट्रेन 12 बजे श्री महावीर जी स्टेशन पर पहुंच गई। स्टेशन पर उतरते ही वहां भगवान महावीर की प्रतिमा देखकर मन पवित्र हो जाता है। वहां हरेक ट्रेन के वक्त पर यात्रियों को स्टेशन से लेने के लिए मंदिर कमिटी की बस आती है। उसी बस से हम मुख्य मंदिर तक पहुंचे। कमरा आदि बुक कराने के बाद हम तरोताजा होकर अन्नपूर्णा भोजनालय में गए। घर से बाहर इतना शुद्ध और सात्विक भोजन खाकर तबीयत प्रसन्न हो गई। कुछ देर तक कमरे पर विश्राम करने के बाद हम शाम को आरती के लिए मंदिर पहुंचे। आरती के लिए जैन धर्मानुयायियों के अलावा सिर पर पगड़ी बांधे गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी मौजूद थे। उनके साथ लंबे-लंबे घूंघट निकाले महिलाएं भी पूरे उत्साह से आरती में भाग ले रही थीं। श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए मंदिर के चारों और फेरी (परिक्रमा) लगा रहे थे।
यहां स्थित भगवान महावीर को 'टीले वाले बाबा' के रूप में जाना जाता है। इसके बारे में एक लोक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि आज से करीब 400 साल पहले श्री महावीर जी गांव को चांदनपुर के नाम से जाना जाता था। वहां एक ग्वाला अपने परिवार सहित रहता था। एक दिन जब उसकी गाय जंगल से चरकर लौटी, तो उसने बिल्कुल दूध नहीं दिया। रोज-रोज ऐसा होना गरीब ग्वाले के लिए परेशानी का सबब बन गया। एक दिन परेशान ग्वाला गाय का पीछा करते हुए जंगल में पहुंचा, तो गाय एक टीले के ऊपर खड़ी हो गई और थनों से अपने आप दूध बहने लगा। यह देखकर ग्वाला डर गया और घर भाग आया। घर आकर उसने बताया कि जंगल वाले टीले में कोई देव है, जो हमारी गाय का दूध चुरा लेता है। उसने टीले को खोदकर उसकी सचाई जानने की सोची। पूरे दिन टीले की खुदाई करने के बावजूद उसे कुछ नजर नहीं आया। रात को उसे सपना आया कि कल भी खुदाई जारी रखना।
अगले दिन थोड़ी ही खुदाई करने पर उसे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की यह मनभावन मूर्ति मिली। ग्वाले ने मूर्ति को वहीं विराजमान कर दिया और खुद भी वहीं रहने लगा। रोज सुबह उठकर मूर्ति को दूध चढ़ाता और शाम को घी के दीपक से आरती करता। धीरे-धीरे आसपास के गांवों के लोग भी वहां आने लगे। श्री महावीर जी में हर साल महावीर जयंती के अवसर पर चैत्र शुक्ल 13 से वैशाख कृष्णा द्वितीया तक पांच दिवसीय मेला लगता है। इस मेले में प्रभु की प्रतिमा को रथ पर बैठा कर गंभीर नदी के तट पर ले जाया जाता है। साथ में उत्साह से भजन गान कर रहे भक्तों की मंडली होती है। नदी तट पर भव्य पंडाल में प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है। इस रथ यात्रा का खास आकर्षण मीणा और गुर्जर समुदाय की नृत्य मंडलियां होती हैं।
पंडाल जाते वक्त मीणा और आते वक्त गुर्जर नर्तक अपना कमाल दिखाते हैं। भगवान के रथ का संचालन सरकारी अधिकारी द्वारा किया जाता है। श्री महावीर जी स्टेशन पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-मुंबई बड़ी रेल लाइन पर स्थित है। यहां सभी एक्सप्रेस ट्रेन रुकती हैं। इसके अलावा दिल्ली से बस सेवा भी उपलब्ध है। श्री महावीर का निकटतम एयरपोर्ट जयपुर है।
मंदिर कमिटी की धर्मशालाओं में डीलक्स और एसी रूम में रुकने की व्यवस्था है। मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर फाइव स्टार रिजॉर्ट सुविधा भी उपलब्ध है। खाने-पीने के लिए मंदिर कमिटी की अन्नपूर्णा भोजनशाला के अलावा निजी भोजनालय भी हैं।
श्री महावीर जी में मुख्य मंदिर के अलावा तीन और जिन (जैन) मंदिर हैं। इनमें मुख्य मंदिर के पास ही स्थित कांच का मंदिर विशेष तौर पर दर्शनीय है। साथ ही मुख्य मंदिर के नीचे स्थित ध्यान केंद्र में स्थित सैकड़ों रत्न प्रतिमाएं भी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र होती हैं। पास ही स्थित म्यूजियम में खुदाई में समय-समय पर मिले अभिलेख आदि संग्रह करके रखे गए हैं। इनसे जैन कला और संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिलता है। यहां स्थित पुस्तकालय में जैन संस्कृति से संबंधित प्राचीन ग्रंथ और पांडुलिपियां भी मौजूद हैं। अगर थोड़ा वक्त लेकर जाया जाए, तो श्री महावीर जी से 90 किलोमीटर आगे चमकौर जी जैन मंदिर और रणथंभौर नैशनल पार्क देखे जा सकते हैं। इसी तरह दिल्ली वापस आते वक्त श्री महावीर जी से 84 किलोमीटर पहले भरतपुर पक्षी विहार भी देखा जा सकता है।

फिल्म स्टार्स @ पॉलिटिक्स


भले ही लोग पॉलिटिक्स की दुनिया को कितना ही भला-बुरा कहते हों, लेकिन इसकी पावर को देखते हुए सबके भीतर पॉलिटिक्स जॉइन करने की चाहत छुपी रहती है। आम आदमी ही नहीं, बल्कि फिल्म स्टार्स भी इसे जॉइन करने की चाहत से बच नहीं पाते। हाल ही में साउथ के सुपर स्टार चिंरजीवी ने प्रजा राज्यम नाम की पॉलिटिकल पार्टी की स्थापना की है। आइये फिल्मी सितारों के पॉलिटिक्स की दुनिया तक के सफर पर डालते हैं एक नजर :
हाल ही साउथ सिनेमा के सुपर स्टार चिंरजीवी ने आंध्र प्रदेश में `प्रजा राज्यम´ नाम की एक पॉलिटिकल पार्टी की स्थापना की है। `मैटिनी आइडल´ के नाम से मशहूर इस हीरो को सपोर्ट करने के लिए पार्टी की स्थापना के वक्त कई लाख मौजूद थे। अपनी फिल्मों में ज्यादातर आम जनता की मदद करने वाले हीरो का रोल करने वाले चिंरजीवी के चाहने में वालों की यूथ की संख्या काफी ज्यादा है। साउथ के फिल्म स्टारों के पॉलिटिक्स के मैदान में अच्छे रिकॉर्ड को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि चिंरजीवी कुछ कमाल दिखा सकते हैं।
गौरतलब है कि इससे पहले तेलुगू स्टार एम. जी. रामाचंद्रन भी पॉलिटिक्स में लंबी पारी खेल चुके हैं। शुरुआत में कांग्रेस के मेंबर रहे एमजीआर बाद में डीएमके में शामिल हो गए। डीएमके से मतभेद होने पर उन्होंने एआईएडीएमके के नाम से अपनी नई पार्टी बना ली और तमिलनाडु के चीफ मिनिस्टर बन गए। इसी तर्ज पर तेलेगु फिल्मों की सुपरस्टार जयललिता ने भी एआईएडीएमके जॉइन करके अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत की। राज्यसभा सदस्य मनोनीत की गई जयललिता ने उसके बाद मुड़कर नहीं देखा। बाद में जयललिता तमिलनाडु की पहली महिला चीफ मिनिस्टर बनी।
शायद साउथ की जनता फिल्मी स्टार्स को पॉलिटिक्स में देखना काफी पसंद करती है। यही वजह है कि एनटीआर के नाम से मशहूर सुपर स्टार एन. टी. रामाराव को भी राजनीति में आना पड़ा। कहा जाता है कि एक फिल्म के प्रमोशन के दौरान एनटीआर के एक फैन ने उनसे पूछा कि हम आपको भगवान की तरह मानते हैं, लेकिन आपने हमें बदले में क्या दिया। गौरतलब है कि उनके द्वारा निभाए गए भगवान श्रीकृष्ण के रोल को काफी पसंद किया गया था। एनटीआर ने तेलुगू देशम पार्टी की स्थापना की। नाटकीय तरीके से बनी पार्टी ने अपने गठन के 9 महीने बाद ही सत्ता हासिल कर ली और एनटीआर आंध्र प्रदेश के चीफ मिनिस्टर बन गए।
जहां साउथ के सितारों को पॉलिटिक्स की गलियां बहुत रास आईं, वही इसके उलट बॉलिवुड के कुछ स्टार इसमें हाथ भी जला बैठे। अपने पारिवारिक मित्र राजीव गांधी की वजह से अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद सीट पर चुनाव लड़ा और यूपी के पूर्व चीफ मिनिस्टर हेमवती नंदन बहुगुणा को रिकॉर्ड अंतर से हराया। हालांकि यह पारी ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल पाई और अमिताभ ने अपने कार्यकाल के बीच में ही एमपी की सीट से इस्तीफा दे दिया। अमिताभ पिछले दिनों भले ही समाजवादी पार्टी के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार करते नजर आए हों, लेकिन सक्रिय पॉलिटिक्स में आने का इरादा उन्होंने त्याग दिया है। उसी दौरान जयप्रकाश नारायण से प्रभावित `शॉटगन´ शत्रुघ्न सिन्हा ने भी फिल्मी करियर के पीक पर पॉलिटिक्स में आने का फैसला किया। खास बात यह थी कि उन्होंने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत के लिए बीजेपी को चुना, जो उस वक्त सिर्फ दो संसद सदस्यों के साथ संघर्ष कर रही थी। सिन्हा के लिए पॉलिटिक्स की राह इतनी आसान नहीं रही। बाद में उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में सेंट्रल हेल्थ मिनिस्टर बनाया गया।
ऐसा नहीं है आज पॉलिटिक्स के आकाश में चमक रहे सभी सितारे संघर्ष करके आए हैं। ऐसे भी कई लोग हैं, जो अपने स्टारडम की बदौलत सीधे ही यहां आकर चमकने लगे। अपने जमाने के जाने-माने स्टार विनोद खन्ना ने बीजेपी जॉइन करके पॉलिटिक्स में एंट्री की। उन्होंने गुरुदास पुर सीट पर लगातार तीन बार से एमपी रहे सुखबंस कौर भिंडर को हरा दिया। वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भी खन्ना ने अपनी लोकसभा सीट को बनाए रखा।
थोड़ा देर से सही, लेकिन फिल्मों में काफी लंबी पारी खेलने के बाद धर्मेन्द्र ने भी साथी कलाकारों की राह चलते हुए पॉलिटिक्स की दुनिया का स्वाद चखने का फैसला किया। उन्होंने `फिल्मी सितारों की पार्टी´ कही जाने वाले बीजेपी ही जॉइन की। पार्टी ने पिछले में आम चुनाव में उन्हें राजस्थान की बीकानेर लोकसभा सीट पर टिकट दिया। अपने स्टारडम की बदौलत धर्मेंद्र ने चुनाव तो जीत लिया, लेकिन वहां की जनता की उम्मीद पर खरे नहीं उतर पाए।
इसी तरह फिल्मी दुनिया के चमकदार सितारों में से एक गोविंदा ने अपने करियर को ढलान पर जाता देख पॉलिटिक्स जॉइन करने का फैसला कर लिया। उन्होंने दूसरे सितारों अपोजिट जाते हुए कांग्रेस का हाथ थामा। उन्होंने पिछले आम चुनावों में तत्कालीन सेंट्रल पेट्रोलियम मिनिस्टर और पांच बार से नॉर्थ मुंबई के एमपी रह चुके राम नाइक को हराया। हालांकि गोविंदा भी धर्मेंद्र की तरह अपनी लोकसभा सीट पर ज्यादा वक्त नहीं दे पाते। इसलिए नॉर्थ मुंबई के लोग भी उनसे परेशान हैं।
भले ही जयाप्रदा का फिल्मी एक्सपीरियंस राजनीति के मैदान में मौजूद साथियों से थोड़ा कर रह जाए, लेकिन राजनीति के मामले में वह आगे हैं। इस खूबसूरत अभिनेत्री ने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत तेलुगू देशम पार्टी के साथ की। पार्टी सुप्रीमो चंद्र बाबू नायडू ने उन्हें राज्यसभा सदस्य नॉमिनेट किया। हालांकि बाद में नायडू से मतभेद की वजह से उन्होंने समाजवादी पार्टी जॉइन कर ली। पार्टी ने उन्हें पिछले आम चुनाव में रामपुर लोकसभा सीट से टिकट दिया। स्टारडम के सहारे उन्होंने इस सीट पर जीत हासिल कर ली।
अपने पति धर्मेंद्र के साथ हेमा मालिनी ने भी पॉलिटिक्स जॉइन करने का फैसला कर लिया था। हालांकि उन्होंने बैक डोर चुना। वह बीजेपी की राज्यसभा सदस्य हैं। पार्टी पॉलिटिक्स में काफी एक्टिव रहने वाली हेमा सभी मीटिंग अटेंड करती हैं। साथ ही चुनावों के दौरान वह बीजेपी के लिए स्टार प्रचारक की भूमिका भी निभाती हैं। इस उम्र में भी बेहद खूबसूरत नजर आने वाली इस अभिनेत्री की चुनावों में मांग का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी की ओर से उन्हें स्पेशल हेलिकॉप्टर दिया जाता है।

Thursday 4 September, 2008

डूसू इलेक्शन में पोस्टर के रंग


डीयू स्टूडेंट्स यूनियन इलेक्शन का रंग न सिर्फ यूनिवर्सिटी, बल्कि पूरी दिल्ली पर चढ़ता है। चाहे कॉलोनी हो या सड़क, फ्लाईओवर हो या बिजली के खंभे, चुनावी पोस्टर्स से अटे रहते हैं। जाहिर है, इतने बड़े लेवल पर चुनाव प्रचार करने में काफी खर्च आता है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि विधानसभा इलेक्शन, डीयू इलेक्शन के मुकाबले सस्ता पड़ता है। लेकिन इस बार फिजा बदल सकती है। स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में पैसे के जोर को रोकने के लिए डीयू एडमिनिस्ट्रेशन ने इस साल इलेक्शन में प्रिंटेड पोस्टर्स को बैन कर दिया है। अब पूरे शहर की बजाय चुनावी पोस्टर्स सिर्फ कॉलेजों की वॉल ऑफ डेमोक्रेसी पर लगाए जाएंगे और वह भी हैंडमेड।
हालांकि पिछली बार के चुनाव में भी इस तरह के कदम उठाने की बातें कही गई थीं, लेकिन उन्हें सही तरीके से लागू नहीं किया सका और इस बार भी मामला ढीला ही लग रहा है। प्रशासन ने प्रिंटेड पोस्टर्स पर पाबंदी के लिए सत कदम तो उठाए हैं, लेकिन स्टूडेंट लीडर्स भी कम नहीं हैं। उन्होंने नियमों की काट ढूंढ ली है। यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने किसी कैंडिडेट का फोटो लगाकर वोट मांगने वाले पोस्टर को बैन किया है, किसी और तरह के पोस्टर को नहीं। अगर जॉइन एबीवीपी या फिर जॉइन एनएसयूआई वाले पोस्टर पर कैंडिडेट की फोटो लगा दी जाए, तो कोई परेशानी नहीं है। बस इसी का फायदा छात्र नेता उठा रहे हैं। नॉर्थ कैंपस के कॉलेज इस तरह के पोस्टर्स से अटे पड़े हैं, जबकि हैंडमेड पोस्टर लगाने के लिए फिक्स की गई `वॉल ऑफ डेमोक्रेसी´ खाली पड़ी हैं। काफी ढूंढने पर रामजस कॉलेज के सामने वाली `वॉल ऑफ डेमोक्रेसी´ पर गिनती के हैंडमेड पोस्टर नजर आए। एनएसयूआई के एक कार्यकर्ता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि प्रिंटेड पोस्टर को बैन किया गया है, लेकिन प्रिंटेड हैंड बिल पर कोई रोक नहीं है, इसलिए हम पोस्टर की बजाय हैंड बिल का यूज प्रचार में कर रहे हैं।
डूसू के चीफ इलेक्शन ऑफिसर गुरमीत सिंह भी यह मानते हैं कि अगर पार्टी द्वारा अपने प्रचार के लिए छपवाए गए किसी पोस्टर में कैंडिडेट की फोटो लगवा दी जाती है, तो वह प्रतिबंध के दायरे में नहीं आता। लेकिन यह भी तो अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार है? इस सवाल पर सिंह कहते हैं, `अगर किसी ने जॉइन एनएसयूआई या जॉइन एबीवीपी के पोस्टर लगा रखे हैं, तो यह प्रतिबंध के दायरे से बाहर है।´ लेकिन अगर कोई कैंडिडेट अपने किसी विरोधी कैंडिडेट के पोस्टर छपवा कर लगवा दे,तो? गुरमीत कहते हैं, `तो किसी पर एकदम से कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। हम नोटिस देकर उन्हें बुलाएंगे, उनका पक्ष सुनने के बाद ही कार्रवाई की जाएगी।´
पोस्टरों पर पाबंदी को लेकर भले ही यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन की सोच कुछ भी रही हो, लेकिन स्टूडेंट्स यूनियन इस फैसले से खुश नहीं हैं। एनएसयूआई के प्रवक्ता आनंद पांडे बताते हैं, `सबसे बड़ी बात यह है कि पोस्टर लगाना कोई गुनाह नहीं है, तो फिर उन्हें बैन क्यों किया जा रहा है। सच तो यह है कि इस वक्त स्टूडेंट पॉलिटिक्स एक बड़े षडयंत्र की शिकार हो रही है। जब नेताओं को चुनाव प्रचार के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध की जाती हैं, तो हमारे साथ भेदभाव क्यों? अगर यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन नहीं चाहता कि हम लोग पोस्टर लगाएं, तो फिर उन्हें अमेरिकन यूनिवर्सिटीज की तर्ज पर कोई प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना चाहिए।´
दूसरी ओर, छात्र राजनीति के पुराने खिलाड़ी एबीवीपी के प्रदेश सहमंत्री विकास दहिया कहते हैं, `डीयू बहुत बड़ा कैंपस है। यहां आप स्टूडेंट टु स्टूडेंट एप्रोच नहीं कर सकते। इसलिए प्रिंटेड पोस्टर ही एक सहारा था। जहां प्रिंटेड पोस्टर की कॉस्ट एक से डेढ़ रुपए होती है, वहीं हैंडमेड की कॉस्ट इसके कई गुना आती है। जाहिर है, अब हम उस लेवल पर प्रचार नहीं कर पाएंगे। इसलिए यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन को चाहिए कि वह प्रेजिडेंशल डिबेट जैसे आयोजन करके कैंडिडेट्स को अपने प्रचार का मौका दे।

Monday 25 August, 2008

सितारों से निराशा, जुगनूओं ने जगाई आशा



पेइचिंग ओलिंपिक खत्म हो गया है। भारत समेत तमाम देशों को मिले मेडल्स की गिनती करीब-करीब तय हो गई है। अगर अभिनव बिंद्रा के गोल्ड और सुशील कुमार, विजेंद्र कुमार के ब्रांन्ज मेडल को छोड़ दिया जाए, तो काफी उम्मीदों के साथ चाइना पहुंचे भारतीय दल को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी है। ओलिंपिक के लिए जाने से पहले से कुछ खिलाडियों को लेकर बड़े-बडे़ दावे किए गए थे। यह बात और है कि वे उन्हें हकीकत में बदलने में पूरी तरह नाकाम रहे। इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है कि जिन स्टार खिलाडियों से गोल्ड की उम्मीद की जा रही थी, वे क्वालिफाई करने में भी नाकाम रहे। जबकि कुछ अंजान `जुगनू´ नए सितारों के रूप में सामने आए हैं।

नहीं संभला उम्मीदों का ध्वज
लेफ्टिनेंट कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर न सिर्फ भारतीय ओलिंपिक दल के ध्वजवाहक थे, बल्कि भारतीय उम्मीदों के भी `ध्वजवाहक´ थे। उन्होंने असली ध्वज तो उठा लिया, लेकिन `भारतीय उम्मीदों का ध्वज´नहीं संभाल पाए। गौरतलब है कि राठौर डबल ट्रैप शूटिंग के क्वालिफाइंग मुकाबले में ही बाहर हो गए। 2004 में एथेंस ओलिंपिक खेलो के दौरान सिल्वर मेडल जीतने के बाद चारों और उनके ही नाम की चर्चा थी। बतौर मेजर पदक जीतने वाले राठौर को आर्मी ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देते हुए लेफ्टिनेंट कर्नल बना दिया। पेज थ्री की दुनिया ने भी क्रिकेट और बॉलिवुड से अलग उभरे इस स्टार को हाथोंहाथ लिया। सभी ने सिल्वर जीतने वाले राठौर से पेइचिंग ओलिंपिक में गोल्ड का सपना देखा। मेलबर्न कॉमनवेल्थ गेम्स तक तो वह ठीकठाक फॉर्म में थे, लेकिन उसके बाद राठौर फॉर्म से बाहर हो गए। शायद पेज थ्री पार्टियों में बिजी रहने की वजह से उन्हें प्रैक्टस के लिए वक्त नहीं मिल पाया होगा।

फ्लॉप हो गईं सानिया
सानिया मिर्जा भारतीय पेज थ्री का एक जाना-माना चेहरा हैं। लॉन टेनिस जैसे खेल में किसी ग्लैमरस लड़की की उपस्थिति को हाथोंहाथ लिया गया। साथ ही स्कर्ट को लेकर उठे विवादों ने उन्हें और ज्यादा लाइम लाइट में ला दिया। शाहिद कपूर के साथ अपने `कनेक्शन´ की वजह से सानिया लगातार खबरों में बनीं रहती हैं। ओलिंपिक के लिए जाने से पहले सानिया के शाहिद के साथ `किस्मत कनेक्शन´ का स्पेशल शो देखने की भी खबरें हैं। शायद इस वजह से उन्हें प्रैक्टस के लिए वक्त नहीं मिल पाया होगा। इसलिए ओलिंपिक मार्च पास्ट के लिए तैयार होने के वक्त भी वह `प्रैक्टस´ में बिजी थीं। यही वजह थी कि मार्च पास्ट में वह ऑफिशल ड्रेस ग्रीन साड़ी की बजाय ट्रैक सूट में नजर आईं।

अंजू की फाउल जंप
राजीव गांधी खेल रत्न और अर्जुन पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित खेल पुरस्कारों से सम्मानित अंजू बॉबी जॉर्ज से इस ओलिंपिक में काफी उम्मीदें लगाई गई थीं। कहा जा रहा था कि वह कभी भी कोई चमत्कार करने की क्षमता रखती हैं। और अंजू ने वाकई में `चमत्कार´ कर दिखाया। क्वालिफाइंग राउंड के दौरान तीन फाउल जंप लगाकर उन्होंने वाकई में `चमत्कार´ ही किया है। किसी ने सोचा भी नहीं था कि 2003 की वर्ल्ड चैंपियनशिप में भारत के लिए पहली बार कोई मेडल जीतने वाली एथलीट इतने शर्मनाक तरीके से ओलिंपिक से बाहर होगी। 2004 में एथेंस ओलिंपिक में उन्होंने 6.7 मीटर की छलांग लगाकर छठा स्थान और 2006 में वल्र्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल जीता था। लेकिन इस साल अंजू 6.5 मीटर की छलांग भी नहीं लगा पाई थीं। उनके हालिया प्रदर्शन को देखते हुए उड़न सिख मिल्खा सिंह ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि उनमें पदक जीतने का दम नहीं है।

ले डूबी आपसी तकरार
2004 के ओलिंपिक में भारत के लिए एकलौता मेडल (ब्रान्ज) जीतने वाले लिएंडर पेस और स्टार टेनिस प्लेयर महेश भूपति की जोड़ी से देश ने काफी उम्मीदें पाल रखी थीं। गौरतलब है कि पिछले काफी दिनों से यह जोड़ी साथ में मैदान पर नहीं उतरी है। इसे ओलिंपिक मेडल जीतने का का प्रेशर ही कहेंगे कि दोनों एक बार फिर से जोड़ी बनाने को मजबूर हो गए। लेकिन उन्हें साथ में प्रैक्टस करने का पूरा वक्त नहीं मिल पाया। जाहिर है कि काफी दिनों बाद साथ खेलने पर उन्हें आपसी टयूनिंग बैठाने में भी परेशानी आई होगी। इन्हीं वजहों से पेस-भूपति की जोड़ी ने क्वॉर्टर फाइनल तक का सफर तो तय कर लिया, लेकिन वहां रोजर फेडरर और वावरिंका की जोड़ी से पार नहीं पा सके। अब शायद दोनों ही यह सोच रहे होंगे कि काश पहले से साथ में प्रैक्टस कर ली होती, तो ओलिंपिक में और बेहतर कर पाते। लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!

भारत को मिले नए स्टार
`स्टार´ खिलाडियों निराशाजनक प्रदर्शन के बावजूद इस ओलिंपिक ने देश को कुछ ऐसे सितारे दिए, जिन्होंने आड़े वक्त पर अपने प्रदर्शन से देश का नाम ऊंचा किया। इनमें से अभिनव बिंद्रा को तो लोग फिर भी पहले से जानते थे। गौरतलब है कि उन्हें राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड मिल चुका है। लेकिन सुशील कुमार, विजेंद्र कुमार, जितेंद्र कुमार, अखिल कुमार, साइना नेहवाल और योगेश्वर दत्त जैसे खिलाडियों को इस पेइचिंग ओलिंपिक की उपलब्धि ही कहा जाएगा।

क्वॉर्टर फाइनल मेनिया
काश भारतीय खिलाड़ी थोड़ा और ज्यादा प्रेशर झेलने का माद्दा रखते, तो आज ओलिंपिक मेडल लिस्ट में भारत के नाम के आगे लिखे मेडलों की संख्या कुछ ज्यादा होती। अगर भारतीय खिलाडियों के ओलिंपिक प्रदर्शन पर नजर डाली जाए, तो वे अपनी कड़ी मेहनत के बल पर पहला, दूसरा राउंड पार करके क्वॉर्टर फाइनल में तो पहुँच गए। देश ने उनसे मेडल की उम्मीदें बांध ली, क्योंकि क्वॉर्टर फाइनल में जीतने पर ब्रांन्ज मेडल पक्का हो जाता है। लेकिन यहां का प्रेशर नहीं झेल पाए और बिखर गए।

क्वॉर्टर फाइनल में आउट हुए खिलाड़ी
साइना नेहवाल - बैडमिंटन
बोम्ब्याला देवी, डोली बनर्जी, परिणीता - तीरंदाजी
लिएंडर पेस महेश भूपति - टेनिस
योगेश्वर दत्त - कुश्ती
अखिल कुमार - मुक्केबाजी
जितेंद्र कुमार- मुक्केबाजी

Monday 18 August, 2008

ओलिंपिक में नहीं चमके `सितारे´


आखिरकार `गोल्डन बॉय´ अभिनव बिंद्रा ने भारत की 28 साल पुरानी गोल्ड मेडल की प्यास को बुझा ही दिया। जबकि `भारतीय उम्मीदों के सूरज´ राज्यवर्धन सिंह राठौर क्वालिफाइंग मुकाबले में ही बाहर हो गए। ओलिंपिक में अभी तक के प्रदर्शन पर नजर डालें, तो भारतीय टीम के `स्टार´ खिलाडियों ने देश को निराश किया। इसके उलट कई ऐसे खिलाडियों ने शानदार प्रदर्शन किया, जिन्हें कोई जानता भी नहीं था। भारतीय ओलिंपिक टीम के फ्लैग बियरर बनने का गौरव प्राप्त करने वाले राठौर पर देश को सबसे ज्यादा भरोसा था, लेकिन अफसोस वह इसे बरकरार नहीं रख पाए। 2004 में राठौर के सिल्वर मेडल जीतने के बाद के उनके सफर पर नजर डाले, तो इस बीच उन्होंने 2006 में मेलबर्न कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड और एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल जीता था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि 2004 में मिले सिल्वर ने राठौर को एक हस्ती बना दिया था। स्वतंत्र भारत के पहले इंडिविजुअल सिल्वर मेडल विनर बनने की वजह से उन पर चारों ओर से रुपयों की बरसात हो रही थी। साथ ही पेज 3 में भी उनकी काफी पूछ हो रही थी। शायद इन्हीं वजहों से राठौर का ध्यान ओलिंपिक की तैयारियों से हट गया और वह पहले ही राउंड में बाहर हो गए। इसी तरह `भारतीय टेनिस सनसनी´ के नाम से जानी जाने सानिया मिर्जा भी दाहिने हाथ की कलाई में लगी चोट की वजह से बाहर हो गई। भले ही खेल के दौरान उनका हाथ जरा सी देर में साथ छोड़ गया हो, लेकिन सानिया ने `प्रैक्टिस´ में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। और तो और जब दूसरे खिलाड़ी ओलिंपिक मार्च पास्ट के लिए ऑफिशल ड्रेस में तैयार हो रहे थे। उस वक्त भी वह `प्रैक्टिस´ कर रही थीं, इसी वजह से मार्च पास्ट में सानिया ट्रैक सूट में दिखाई पड़ीं। उधर शूटर समरेश जंग और तीरंदाज डोला बनर्जी जैसे दूसरे `स्टार´ भी अपनी लाइट बिखेरने से पहले ही बुझ गए। भारत के लिहाज से इस ओलिंपिक की सबसे बड़ी सफलता कुछ नए स्टार्स का सामने आना रही है। जाहिर है कि इनमें सबसे पहला नाम अभिनव बिंद्रा का है। बैडमिंटन प्लेयर साइना नेहवाल ने अप्रत्याशित रूप से क्वॉर्टर फाइनल में पहुँच कर सबको चकित कर दिया। भले ही वह क्वॉर्टर फाइनल से आगे नहीं बढ़ पाई हों, लेकिन उनकी सफलता को कम करके नहीं आंका जा सकता। बाक्सिंग के फील्ड में भी भारत को नए सूरमा मिलें हैं। जीतेंद्र कुमार(51 कि. वर्ग), अखिल कुमार(54 कि. वर्ग)और विजेंदर कुमार (75 कि. वर्ग) ने प्री क्वॉर्टर फाइनल के क्वालिफाई करके पहलवानों के देश भारत का मान बढ़ाया है। इसी तरह आपसी मतभेद भुलाकर उतरी लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी भी ब्राजील को हराकर क्वॉर्टर फाइनल में पहुँच गई है।

Wednesday 13 August, 2008

कब टूटेगी यह चुप्पी......


इंसानी जिंदगी के बदलते तौर तरीको को वक़्त के साथ साथ समाज में मान्यता मिल जाती है, लेकिन सेक्सुअल पसंद में आ रहे बदलावों पर हमारा कानून और समाज दोनों चुप हैं। हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट नें माना की होमोसेक्सुएलिटी को लेकर बने कानूनों पर फिर से विचार की जरुरत है। देखते हैं समाज की इस अलग तस्वीर को
होमोसेक्सुएलिटी एक ऐसा मुद्दा है, जिसके बारे में बात करना हमारे देश में पसंद नहीं किया जाता। अंग्रेजों के जमाने में बने कानून इंडियन पीनल कोड 1860 की धारा 377 के मुताबिक हमारे देश में होमोसेक्सुएलिटी को अपराध माना गया है। यह इंसानी फितरत होती है कि अगर किसी चीज पर रोक लगाई जाए, तो वह उसके खिलाफ जाकर देखने की कोशिश करता है। इसी का नतीजा है कि हमारे देश में अक्सर गे और लेस्बियन जोड़ो के अपने घरों से भागने के केस सामने आते रहते हैं। कई बार तो समाज की प्रताड़ना से बचने के लिए वे लोग स्यूसाइड जैसा कदम भी उठा लेते हैं। इसके बावजूद अभी तक सरकार द्वारा इस बारे में कोई पहल सामने नहीं आई है। हाल ही में माननीय बॉबे हाईकोर्ट द्वारा होमोसेक्सुएलिटी के मुद्दे पर पॉजिटिव कमेंट किए जाने से एक उम्मीद की किरण नजर आई है। बॉबे हाई कोर्ट के जस्टिस बिलाल नजाकी और जस्टिस शारदा बोबडे ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि वक्त के साथ सामाजिक ढांचे में काफी बदलाव आ गया है, जिससे लोगों की सेक्सुअल पसंद चेंज हो गई है। इसे अननेचुरल नहीं माना जाना चाहिए। अब वह वक्त आ गया है, जब करीब एक सेंचुरी पहले बने कानूनों पर दोबारा से विचार किए जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि फिलहाल भारत में धारा 377 का उल्लंघन करने पर 10 साल की सजा का प्रावधान है। जाने-माने वकील प्रशांत भूषण कहते हैं,`माननीय हाईकोर्ट ने एक जरूरी मुद्दे पर सही कमेंट किया है। कोर्ट द्वारा इस तरह की बात कहे जाने से सरकार के ऊपर धारा 377 पर दोबारा से विचार करने का दबाव पड़ेगा। सही मायनों में देखा जाए, तो यह धारा पहले से ही गैर संवैधानिक है।´ वहीं जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, `जब अदालत की ही समझदारी खुल रही है, तो इस मुद्दे का स्वागत किया जाना चाहिए। दरअसल, अभी तक हमारे समाज में इस सेक्सुअल कल्चर को लेकर एक रहस्यमय माहौल रहा है। इस कल्चर में किशोर-किशोरी के बीच के संबंध,समलैंगिकता और वेश्यावृति जैसे मुद्दे शामिल हैं। इन मुद्दों पर बातचीत करने के लिए हमारा समाज कभी भी तैयार नहीं हुआ है।´ गौरतलब है कि भारत में ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी कोर्ट ने होमोसेक्सुएलिटी को अपराध मानने वाले कानून को बदलने की बात कही है। इसके बाद देश भर के गे और लेस्बियन संगठनों में उत्साह का माहौल है। उन्होंने इसका स्वागत किया है। नई दिल्ली स्थित नाज फाउंडेशन पिछले काफी समय से धारा 377 को खत्म किए जाने की मांग कर रहा है। उन्होंने धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने की मांग को लेकर एक पीआईएल भी दायर कर रखी है। नाज फाउंडेशन के कोआडिनेटर राहुल सिंह कहते हैं कि हम कोर्ट की टिप्पणी का स्वागत करते हैं। अगर इंसान की सभी जरूरतें वक्त के साथ बदलती रहती हैं, तो फिर सेक्सुअल जरूरतों की अनदेखी कैसे की जा सकती है। अगर दो एडल्ट लोग अपनी पूर्ण सहमति से कोई संबंध कायम करना चाहते हैं, तो उन पर किसी भी तरह की रोक लगाना बिल्कुल गलत है। `वॉइस अगेन 377´ से जुड़े गे एक्टिविस्ट गौतम कहते हैं, `मैं कोर्ट की टिप्पणीसे पूरी तरह सहमत हूं। वास्तव में अब वह समय आ गया है जब करीब 150 साल पुरानी धारा 377 को खत्म किया जाना चाहिए। पिछले दिनों आई लॉ कमिशन की रिपोर्ट में भी इसे खत्म करने की सिफारिश की गई है। हमारे लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और कुछ नहीं होगी कि हाल ही अपना नया संविधान बनाने वाले नेपाल ने अपने यहां होमोसेक्सुएलिटी को अपराध नहीं माना है।´ अमेरिका से आर्किटेक्ट का कोर्स कर रहे 27 साल के गौतम का मानना है, `इस कानून को खत्म करने से सबसे ज्यादा फायदा उन लोगों को होगा, जिन्हें इसके नाम पर परेशान किया जा रहा है। हमारे पास ऐसे कई केस आते हैं, जिनके समाज के ठेकेदारों द्वारा अपनी सेक्सुअल पसंद चेंज करने के लिए बाकायदा करंट के झटके देकर परेशान किया जाता है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि जब हमारे देश में जात-पात और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, तो सेक्सुअल जरूरतों के आधार पर कैसे किया जा सकता है।´ कई होमोसेक्सुअल संगठनों से जुड़ी लेस्बियन एक्टिविस्ट प्रवदा मेनन कहती हैं, `धारा 377 कानून जिस साम्राज्य से हमारे यहां आया था, वहां भी यह खत्म हो चुका है। जबकि हमारे यहां इसे अभी भी ढोया जा रहा है। हमारे संविधान में भारतीय नागरिकों को हर तरह की स्वतंत्रता दी गई है। अगर कोई महिला पुरुष साथ रह सकते हैं, तो समान लिंग के लोगों के साथ रहने में क्या बुराई है।´ क्या इस धारा को खत्म करने से सामाजिक ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचेगा? 43 साल की अविवाहित मेनन के मुताबिक, `हमारे सामाजिक ढांचे को दहेज हत्या और बाल यौन शोषण से भी नुकसान पहुँच रहा है। विधवा विवाह शुरू करने और सती प्रथा खत्म करने के वक्त भी यही कहा गया था कि इससे सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंचेगा। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जिन लड़कियों के साथ बचपन में किसी पुरुष द्वारा कोई बुरा व्यवहार किया जाता है, वे बाद में लेस्बियन बन जाती हैं। इस हिसाब से तो हमारे देश की ज्यादातर महिलाएं लेस्बियन होनी चाहिए।´ ज्यादा दिनों की बात नहीं है जब राजधानी दिल्ली में हुई पहली गे परेड में देश भर से 500 से ज्यादा होमोसेक्सुअल एक्टिविस्ट आये थे। उन्होंने सरकार से धारा 377 को खत्म करने की मांग की। भारत में होमोसेक्सुअलिटी को सामाजिक और कानूनी स्वीकृति नहीं मिल पाने की वजह से परेड के दौरान उन्होंने अपने चेहरों पर मास्क लगाए हुए थे। साथ ही उन्होंने अपने हाथों में लिए हुए पोस्टरों में लिखा हुआ था कि प्लीज इस मास्क को हटाने में हमारी मदद कीजिए। प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, `माननीय हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद अब हम उम्मीद कर सकते हैं कि एक ऐसा भी दिन आएगा कि होमोसेक्सुअल लोगों को अपने चेहरों पर मास्क लगाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। इन कानूनों के बदलने से हमारे ही समाज के एक अभिन्न अंग समलैगिंको को फिजूल के अपराधबोध से मुक्ति मिलेगी। लेकिन साथ ही इसकी नेगेटिव साइड की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। कानून में आपसी सहमति के आधार पर संबंध स्वीकार्य हों, लेकिन इसके माध्यम से क्रूरता को अनुमति ना दी जाए। खास तौर पर जेल, सेना और लड़कों के आवासीय स्कूलों में समलैगिंकता ने नाम पर काफी क्रूरता देखने को मिलती है। वहां कमजोर लोग अपने से मजबूत लोगों द्वारा यौन शोषण का शिकार बन जाते हैं।´ अगर दूसरे देशों पर नजर डालें, तो वहां होमोसेक्सुएलिटी को कानूनी मान्यता देने की मांग काफी पहले उठ चुकी थी। यही वजह है कि आज डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस और यूनाईटेड किंगडम समेत यूरोप के ज्यादातर देशों में होमोसेक्सुएलिटी के खिलाफ कोई कानून नहीं है। इसके अलावा स्पेन, बेल्जियम, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका, कनाडा और हाल ही में नार्वे समेत दुनिया के 6 देश गे मैरिज को मान्यता भी दे चुके हैं। सवाल यह उठता है कि जब समाज बदलने के साथ-साथ अब लोगों की सेक्सुअल पसंद में बदलाव आने के बावजूद हम कब तक उन बदले हुए लोगों की जरूरतों पर विचार नहीं करेंगे? माननीय हाईकोर्ट के होमोसेक्सुएलिटी पर कमेंट के बाद शायद अब वास्तव में वह वक्त आ गया है, जब विवादास्पद धारा 377 पर विचार किए जाने की जरूरत है!

Wednesday 6 August, 2008

धन्य है ट्रैफिक पुलिस!

एक सज्जन अपना स्कूटर सड़क किनारे स्थित मेडिकल स्टोर के बाहर खड़ा करके अपनी बीमार बीवी के लिए दवाई लेने के लिए दुकान में गए। थोड़ी देर बाद बाहर निकल कर देखते हैं, तो उनका स्कूटर अपनी जगह से गायब है। जाहिर है की यह नजारा देखते ही पहले ही बीवी की बीमारी से परेशान उन सज्जन ने चिल्लाना शुरू कर दिया। शोर सुनकर मेडिकल स्टोर वाला बाहर आ गया और आस-पास के कुछ और लोग भी आ गए। तब उन सज्जन ने अपना स्कूटर गायब होने की बात बताई। उन्हें चिल्लाता देख सामने पान की दुकान वाले ने बताया कि आपका स्कूटर ट्रैफिक पुलिस की बिना पार्किंग के खड़े वाहन उठाने वाली गाड़ी ले गई है। यह सुन कर सभी लोग सड़क पर आ गए। वाकई सामने उन सज्जन का स्कूटर और दूसरे वाहनों के साथ ट्रैफिक पुलिस की गाड़ी पर लदा हुआ जा रहा है। बस फिर क्या था, उन सज्जन ने आव देखा ना ताव और रोको-रोको चिल्लाते हुए उस गाड़ी के पीछे बेतहाशा दौड़ लगानी शुरू कर दी। बेहद घबराए हुए उन सज्जन के हाथ में एक्सरे की रिपोर्ट और दवाइयों की थैली भी लहरा रही थी। वह तो शुक्र था कि उनकी ऐसी हालत देखकर एक मोटरसाइकल सवार को तरस आ गया और उसने उन सज्जन को उनका स्कूटर ले जा रही गाड़ी के आगे ले जाकर खड़ा कर दिया। नहीं तो वह सज्जन भागते-भागते बेहाल हो गए होते। इस तरह वह सज्जन अपने स्कूटर के पास पहुंचे और उन्होंने पुलिस को `नजराना´ चढ़ा कर उसे वापस लिया। यह नजारा पिछले दिनों विकास मार्ग पर नजर आया। वहां मौजूद लोगों ने बताया कि ट्रैफिक पुलिस अक्सर इस तरह की कवायद करती रहती है। पार्किंग के लिए जगह कम होने की वजह से कई बार आम आदमी भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। भले ही उन्होंने किसी दुकान से कुछ सामान खरीदने के लिए कुछ ही देर को अपना वाहन बाहर खड़ा किया हो। जबकि कई बार सड़क के किनारे बेतरतीब खड़े वाहनों को भी छोड़ दिया जाता है। माना की यह कवायद लोगों की सहूलियतों के लिए ही की जाती है, लेकिन इस तरह शरीफ आदमी को परेशान नहीं किया जाना चाहिए। आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अपनी बीवी की दवाई खरीदने आए उस आदमी को बिना बात कितनी परेशानी उठानी पड़ी होगी। ऊपर से `नजराना´ देना पड़ा सो अलग।
धन्य है दिल्ली की ट्रैफिक पुलिस! भले ही बेतरतीब खड़े वाहनों की वजह से लगे जाम में फंसे, धूप से तमतमाए लोगों को कुछ राहत पहुंचाए या ना पहुंचाए,लेकिन पार्किंग अरेंजमेंट बिल्कुल दुरुस्त रखती है।

Tuesday 5 August, 2008

मेल टीचर्स को बाय-बाय


चिट्ठाजगत


मेल टीचर्स के लिए रोजगार के मौके दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा की सरकार ने फैसला किया है कि गर्ल्स स्कूलों में पचास साल से कम उम्र के मेल गेस्ट टीचर अपनी सेवाएं नहीं दे सकेंगे। कहा जा रहा है कि यह फैसला प्रदेश भर में मेल टीचर्स द्वारा छात्राओं से अभद्र व्यवहार की शिकायत के बाद लिया गया है। साथ ही इस वक्त गर्ल्स स्कूलों में काम कर रहे 50 साल से कम उम्र के मेल गेस्ट टीचर्स को दूसरे स्कूलों में एडजस्ट करने के आदेश दिए गए हैं। गौरतलब है कि राज्य के गर्ल्स स्कूलों में परमानेंट टीचरों की नियुक्त के लिए पहले ही प्रावधान है कि वहां उम्रदराज टीचरों की भती की जाए। लेकिन परमानेंट टीचर्स की कमी की वजह से रखे गए गेस्ट टीचर्स की नियुक्त के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। इसी तरह राजधानी दिल्ली में भी एमसीडी ने पिछले दिनों फैसला सुनाया था कि उसके अंतर्गत चलने वाले सभी गर्ल्स स्कूलों में मेल टीचर्स का ट्रांसफर कर दिया जाएगा। इसकी वजह भी पुरुष टीचरों द्वारा बच्चियों से अभद्र व्यवहार की शिकायत थी। एमसीडी के पीआरओ वाई. एस. मान ने बताया कि टीचर्स असोसिएशन के ऑब्जेक्शन के बाद इस फैसले को लागू नहीं किया जा सका है। जबकि एमसीडी एजुकेशन डिपार्टमेंट के एक अधिकारी ने बताया कि यह फैसला करीब-करीब लागू किया जा चुका है। मेल टीचर्स को काफी हद तक गर्ल्स स्कूलों से ट्रांसफर कर दिया गया है। जल्द ही सभी गर्ल्स स्कूल पूरी तरह मेल टीचर्स फ्री हो जाएंगे। अब सिर्फ ऐसे ही स्कूल बचे हैं, जहां सुनसान इलाका होने की वजह से फीमेल टीचर्स जाना नहीं चाहती। जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं कि यह विडंबना ही है कि एक टीचर अपनी स्टूडेंट्स से छेड़छाड़ करने लगता है। ऐसी कंडिशन में गर्ल्स स्टूडेंट्स को किसी भी तरह ऐसे वहशियों से बचाना बेहद जरूरी है। हाल ही में एमसीडी स्कूल में हुए एक रेप केस के बाद इस प्रसीजर में और तेजी आ गई है। रेप केस के बाद जागी एमसीडी ने छात्राओं की सुरक्षा के लिए त्वरित कदम उठाने की पहल की है। मसलन स्कूलों की चारदीवारी ऊंची की जाएगी। खास बात यह है कि गर्ल्स स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स पर अविश्वास व्यक्त करने वाली एमसीडी छात्राओं की सुरक्षा के लिए प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड रखने का प्लान बना रही है। सूत्र बताते हैं कि इस प्लान पर जोर-शोर से काम चल रहा है। सवाल यह उठता है कि क्या प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड छात्राओं को पढ़ाने वाले टीचर्स से ज्यादा विश्वासपात्र हैं? आनंद कुमार कहते हैं कि प्राइवेट सिक्युरिटी रखने की नौबत ही क्यों आती है। बाहरी लोगों की इतनी हिम्मत कैसे पड़ गई कि वे किसी स्कूल में घुस कर रेप जैसे घृणित कार्य को अंजाम देने के बाद भाग जाएं। उस वक्त उस इलाके का थानेदार क्या कर रहा है। क्या दिल्ली की पुलिस सिर्फ नेताओं की चमचागिरी करने के लिए है। इस तरह की घटनाओं के लिए उस इलाके की पुलिस को जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। एमसीडी के नए प्लान के तहत ट्रांसफर किए गए एक मेल टीचर बताते हैं कि यह एमसीडी द्वारा अपनी नाकामी छुपाने के लिए उठाया गया कदम है। अगर एक-दो टीचरों ने इस तरह की गलत की है, तो उसकी सजा आप सभी टीचर्स को नहीं दे सकते। वैसे भी इस फैसले को लागू करने में प्रैक्टिकल प्रॉब्लम आ रही हैं। आखिर एमसीडी इतनी सारी फीमेल टीचर्स कहां से लाएगी। अगर बिना जबर्दस्ती इस फैसले को लागू किया जाएगा, तो गर्ल्स स्कूलों में टीचरों की कमी पड़ पाएगी। आनंद कुमार कहते हैं कि गर्ल्स स्कूलों में मेल टीचर्स बैन करने से पहले आवश्यक कदम उठाने जरूरी हैं। अगर आपके पास टीचर्स की कमी है, तो यह बात पहले सोचनी चाहिए थी। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। बी.एड. पास हजारों लड़कियां नौकरी की तलाश कर रही हैं। उन्हें मौका देकर महिला टीचर्स की कमी को पूरा किया जा सकता है। अब देखना यह है कि महिला स्कूलों को पुरुष टीचरों से मुक्त करने के बाद भी गर्ल्स स्टूडेंट्स की परेशानियां दूर हो पाती हैं या नहीं!

Monday 4 August, 2008

सिक्के की ताल पर चलती बस

Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा
सिक्के की ठक... ठक... ठक... और एकाएक हवा से बातें करती बस रुक गई। ठक... की आवाज से काफी देर से रुकी बस एकदम चल पड़ी और लगातार ठक... ठक... ठक... ठक... ठक... की आवाज के बाद तो बस ने काफी देर तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। ऐसे नजारे हम सभी लोग रोजाना देखते हैं कि भयानक गर्मी से परेशान लोग काफी देर से ड्राइवर से बस चलाने की रिक्वेस्ट कर रहे हैं, लेकिन उसके कान पर कोई जंू नहीं रेंग रही। जबकि, हेल्पर के सिक्के की खनखनाहट में ना जाने क्या जादू होता है कि बस तुरंत चल पड़ती है। ठीक ऐसा ही वाकया बस रुकवाने के मामले में भी होता है। जब ड्राइवर आपके स्टॉप पर बस नहीं रोकता और हेल्पर के सिक्के की आवाज पर बिना स्टॉप के भी बस रुक जाती है। इस तरह के नजारे न सिर्फ Žलू लाइन बल्कि डीटीसी की बसों में भी नजर आते हैं। ऐसे में पैसेंजर सोचते हैं कि आखिर सिक्के की आवाज में ऐसा क्या जादू होता है, जो ड्राइवर को बस रोकने के लिए मजबूर कर देता है? बस हेल्पर सनी ने बताया, `सिक्के की ठक...ठक हमारे और ड्राइवर के बीच की कोड लैंग्वेज होती है। बस में हेल्पर या कंडक्टर पीछे वाली खिड़की पर बैठता है। उसके लिए वहां बैठकर ड्राइवर को आवाज लगाकर बस रोकने या चलने के लिए बोलना मुमकिन नहीं होता। इसी प्रॉŽलम को सॉल्व करने के लिए सिक्के की आवाज से बात की जाती है। तीन-चार बार ठक-ठक करना बस रुकने, एक बार बस चलाने और लगातार ठक-ठक करना बस तेजी से चलाने का इशारा होता है।´ आखिर सिक्के की ठक-ठक को ही ड्राइवर-कंडक्टर की बातचीत का मीडियम क्यों बनाया गया? सनी के मुताबिक, `सिक्का एक ऐसी चीज है, जो कंडक्टर के पास हमेशा और आसानी से मौजूद रहता है। साथ ही इसकी आवाज आसानी से बस के एक कोने से ड्राइवर तक पहंुच जाती है। इसलिए सिक्के को ड्राइवर-कंडक्टर के बीच बातचीत के लिए यूज किया जाता है। वैसे, आजकल कुछ बसों में आपका नया ट्रेंड भी नजर आ जाएगा। अब कुछ बस मालिकों ने ड्राइवर के पास एक घंटी लगवा दी है, जिसका स्विच कंडक्टर के पास रहता है। वे बस को रुकवाने या चलवाने के लिए इस घंटी का यूज करते हैं।´ सीए के स्टूडेंट अंकित कहते हैं कि कंडक्टरों की यह लैंग्वेज हमारे लिए काफी नुकसान दायक साबित होती है। भले ही पैसेंजर अपने स्टॉप पर कितना ही शोर मचा ले या बस को हाथ से बजा ले, लेकिन ड्राइवर सिक्के की आवाज सुने बिना बस नहीं रोकता। सवारी चढ़ाने के वक्त तो ये लोग कहीं पर भी बस रोक कर खड़े हो जाते हैं, लेकिन सवारी उतारने के वक्त डीटीसी स्टॉप पर भी रोकने को तैयार नहीं होते और अपनी मनमानी करते हैं। कई बार सिक्के की आवाज पर बस नहीं रुकने पर पैसेंजर को चोट लगने का खतरा रहता है। गौरतलब है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बस वाले पैसेंजर्स की सुरक्षा की दृष्टि से शीशे पर सिक्का बजाकर बस ना रोकें, बल्कि इस काम के लिए कोई और तरीका अपनाएं। साथ ही बस को हरेक स्टॉप पर रोकें। उसके बाद कुछ बस मालिकों ने खानापूर्ति के लिए बसों में घंटी जरूर लगाई है, लेकिन कंडक्टर शायद ही कभी इसका यूज करते दिखाई देते हैं। दिल्ली यूनिवçर्सटी की स्टूडेंट शालिनी के मुताबिक, `बस वालों पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार का कोई असर दिखाई नहीं देता। बसों में घंटियां सिर्फ दिखाने के लिए लगाई गई हैं। उनमें से ज्यादातर तो खराब पड़ी हैं और कोई अगर ठीक भी है, तो उसका कोई यूज नहीं करता।´ सरकार और कोर्ट की तमाम कोशिशों के बावजूद बसों की ठक...ठक... पर रोक नहीं लग पा रही है। अब देखना पçŽलक को इस परेशानी से निजात दिलाने के लिए कोई और कदम उठाया जाएगा या फिर बस वाले खुद ही लाइन पर आ जाएंगे।