Friday 26 September, 2008

अब टैबू नहीं रहा सेक्स


`प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल.....´ यह सिर्फ 1955 में आई राजकपूर और नरगिस की सुपरहिट फिल्म `श्री 420´ का एक गाना ही नहीं, बल्कि उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। नब्बे के दशक में भारतीय टेलिविजन पर आने वाले गर्भनिरोधक कंडोम `निरोध´ के ऐड को इसी गाने के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता था। यह उस वक्त भारतीय टेलिविजन की नजाकत ही थी कि सिर्फ प्यार से जुड़ा यह गाना सुनाकर ही मान लिया जाता था कि लोग गर्भनिरोधक के बारे में सब कुछ समझ गई होगी। पता नहीं सभी बड़े इसे समझ पाते होंगे या नहीं, लेकिन यह तो तय है कि बच्चे इसे नहीं समझ पाते थे।
जो बच्चे इसे समझ नहीं पाते थे, उन्हें इसे समझने की कोशिश करने का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था। सॉफ्टवेयर प्रफेशनल मनीष बताते हैं कि उस वक्त मेरी उम्र करीब 10 साल रही होगी, जब टेलिविजन पर निरोध का `प्यार हुआ.....´ वाला ऐड आया करता था। रोजाना ऐड देखने के बावजूद मैं कभी भी यह नहीं पाता था कि यह किस चीज का ऐड है। यहां तक की मेरे दोस्तों को भी इस बारे में जानकारी नहीं थी। ऐड को लेकर मेरी उत्सुकता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। एक दिन मैंने हिम्मत करके दादा जी से उसके बारे में पूछ ही लिया। मैंने सोचा था कि दादा जी मुझे उस बारे में जानकारी देंगे, लेकिन यहां तो मामला उलटा पड़ गया। वह छूटते ही मेरे एक उलटे हाथ का तमाचा रसीद करते हुए बोले कि आजकल पढ़ाई-लिखाई में तुम्हारा बिल्कुल मन नहीं रह गया है। चुपचाप जाकर स्कूल का काम पूरा कर लो। उस वक्त मेरा बाल मन यह बिल्कुल नहीं समझ पाया था कि कभी मुझे उंगली भी टच नहीं करने वाले दादा जी ने मुझे इतनी जोर से तमाचा क्यों मारा?´
ऐसा नहीं है कि सिर्फ अकेले मनीष ही इस तरह की घटना के शिकार हुए थे। उस वक्त सेक्स को इतना बड़ा टैबू माना जाता था कि उनकी उम्र के काफी बच्चे इस तरह की परेशानियों के शिकार होते थे। सीए स्टडेंट आदित्य कहते हैं, `मुझे अच्छी तरह याद है कि टेलिविजन पर `प्यार हुआ इकरार हुआ.....´ गाना शुरू होते ही दादा जी मुझको पानी लेने भेज दिया करते थे। हालांकि मैं चोरी छुपे कई बार उस ऐड को देख चुका था, लेकिन उस वक्त यह मेरे लिए बहुत बड़ी प्रॉब्लम यह थी कि आखिर दादा जी को यह गाना शुरू होते ही प्यास क्यों लगती थी?´ रिटायर्ड गारमेंट सर्वेंट मनोहर लाल ने बताया, `यह सच है कि उस वक्त हम लोग या हमारे पैरंट्स बच्चों को निरोध के उस इकलौते ऐड से दूर रखना चाहते थे। दरअसल, हमारे लिए अपने बच्चों को यह समझाना काफी मुश्किल काम था कि निरोध क्या होता है। इसका क्या यूज किया जाता है? इसलिए इस ऐड के आने के वक्त उन्हें कोई बहाना बनाकर या डरा धमका टीवी से दूर कर दिया जाता था।´
उस वक्त के मुकाबले आज जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। अब तो टेलिविजन और अखबारों में कॉन्डम के एक से एक उत्तेजक ऐड छाए रहते हैं। फिल्मों में डबल मीनिंग सेंटेंस और हॉट सींस की भरमार है। इसके बावजूद किसी को कोई परेशानी नहीं है। पूरा परिवार एक साथ बैठकर किसी पिक्चर में चल रहे बैडरूम या किस सीन को देखने में कोई परेशानी महसूस नहीं करता। छोटे-छोटे बच्चों को पहले से पता है कि इस सीन में क्या होने वाला है। सीए राजीव बताते हैं, `मैं अपने और छोटे भाई के बच्चों के साथ बैठ कर मूवी देख रहा था। जैसे ही हीरो-हीरोइन एक-दूसरे को किस करने के लिए पास आए, तो मैंने बच्चों की नजरों से बचाने के लिए सीन फॉरवर्ड कर दिया। तभी मेरे 10 साल के लड़के ने पूछा कि पापा इस सीन में क्या हुआ? इससे पहले कि मैं उसे कुछ जवाब दे पाता। मेरे छोटे भाई का 7 साल का लड़का बोल पड़ा कि भैया हीरो ने हीरोइन को किस किया है। उसकी बात सुनकर मैं हैरान रह गया। मैं चाहता था कि बच्चों को इस तरह के सींस से दूर रखूं, लेकिन लगता है कि टेलिविजन के होते ऐसा कभी संभव नहीं है।´
जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार बताते हैं, `यह सूचना क्रांति का ही परिणाम है कि आजकल के बच्चों को परिवार के दायरों के बाहर वाले स्रोतों से सेक्स से जुड़ी जानकारियां मिल रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस वक्त खुद राज्य ने आम लोगों को यौन संबंधों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उठा लिया है। जब सरकार खुद खुलेआम यह प्रचार कर रही है कि कंडोम साथ लेकर चलें, तो दूसरे को क्या कहा जा सकता है। यह भी सच है कि कहीं ना कहीं कमर्शल कंपनियों द्वारा सरकार के इन कदमों का फायदा उठाया जा रहा है। हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए कि कहीं हम पश्चिमी देशों की तरह टीनएज प्रेग्नेंसी जैसी परेशानियों का शिकार ना हो जाएं और समस्या सुलझने की बजाय उलझ ना जाएं। गौरतलब है कि इस वक्त अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार और अलास्का प्रांत की गवर्नर सारा पेलिन की 17 वर्षीय अविवाहित बेटी प्रेग्नेंट है।´

कुछ ऐसे बदल रही है फिजा

जो समझा वही सिकंदर
यह बेहद आश्चर्य की बात है कि जिस देश के लोग मेडिकल स्टोर पर कंडोम मांगते हुए शर्माते हैं। वहां `कंडोम...कंडोम....´ रिंगटोन को काफी पसंद किया जा रहा है। पिछले दिनों बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट ने कंडोम का इस्तेमाल बढ़ाने के लक्ष्य के साथ इस रिंगटोन को तैयार किया है। इस ऐड कैंपेन की कैच लाइन `जो समझा वही सिकंदर´ है। इसके माध्यम से यह दिखाया जाएगा कि जो लोग कंडोम का इस्तेमाल करने और बोलने में घबराते नहीं हैं, वे समझदार होते हैं। हैरानी की बात यह है कि अपने लॉन्च के कुछ ही दिनों में इस रिंगटोन ने नंबर वन लोकप्रिय रिंगटोन की कुर्सी कब्ज़ा ली है।

सेक्स एजुकेशन कोर्स
ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब स्कूलों में सेक्स एजुकेशन कोर्स स्टार्ट करने को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था। इसी वजह से अभी तक स्कूलों में सेक्स एजुकेशन शुरू नहीं हो पाई है। इसके बावजूद हाल ही में ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ने जल्द शादी करने जा रहे युवाओं के लिए सेक्स एजुकेशन कोर्स शुरू किया है। इसके रिस्पॉन्स का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक काफी बुजुर्ग इन्सान भी इस कोर्स में एडमिशन में लेने पहुंच गए थे, जिन्हें बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर वापस भेजा गया। इस कोर्स का एक बैच पास आउट हो गया है। इस कोर्स के दौरान उन्हें शादी के बाद सेक्स के दौरान आने वाली परेशानियों के समाधान के बारे में बताया गया है।

फीमेल कंडोम
हमारे देश में अभी भी काफी संख्या में पुरुष कंडोम का यूज करना पसंद नहीं करते। ऐसे में अगर यहां फीमेल कंडोम को सफलता मिल रही है, तो यह आश्चर्य की ही बात होगी। दुनिया भर की महिला कार्यकर्ताओं का मानना है कि फीमेल कंडोम को लोकप्रिय बनाने में ग्लोबल स्तर पर नाकामयाबी हाथ लगी है। लेकिन भारत उन चंद अपवाद देशों में शामिल है, जहां फीमेल कंडोम को 97 परसेंट तक स्वीकार किया गया है। यही वजह है कि फिलहाल काफी महंगे इस फीमेल कंडोम को जल्द ही देशभर में मात्र तीन रुपए में उपलब्ध कराए जाने का प्लान है। ताकि एड्स से बचाव के मिशन पर ज्यादा अच्छी तरह काम किया जा सके।

Wednesday 24 September, 2008

किसी को नहीं चाहिए `लक्ष्मी´


हमारे समाज में लड़की को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। वैसे तो हर कोई चाहता है कि उसका घर हमेशा लक्ष्मी से भरा रहे। लेकिन जब बात इस लक्ष्मी की आती है, तो क्या अमीर क्या गरीब सभी नाक भौंह सिकोड़ने लगते हैं। यह समाज की कड़वी सच्चाई है कि असली लक्ष्मी के स्वागत के लिए कोई भी तैयार नहीं है:

एक अजन्मी बच्ची अपनी मां की कोख में निश्चिंत भाव से खेल रही थी। भले ही अभी उसने यह सतरंगी दुनिया नहीं देखी है, लेकिन मां की सहायता से वह इसके बारे में काफी कुछ जान गई है। कहा जाता है कि बच्चे मां की कोख में रहने के दौरान ही उससे काफी कुछ सीख लेते हैं। इसका एक उदाहरण मां की कोख में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख लेने वाला अभिमन्यु भी है। इसी तरह इस बच्ची की आंखों में भी अभी से ही दुनिया को जीतने के सुनहरे सपने हैं। दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह अपनी मां की कोख में वह इतनी खुश है कि उसकी चपलता देखकर उस खुशी को बड़ी आसानी से महसूस किया जा सकता है।
लेकिन यह क्या अचानक वह कांपने लगती है। उसके दिल की धड़कन बहुत तेज चलने लगती है। अपनी ओर तेजी से बढ़ती एक मशीन को देखकर बच्ची को काफी घबराहट हो रही है। बचने के लिए बच्ची ने इधर-उधर भागने की कोशिश की, लेकिन भाग नहीं सकी। मौत को बहुत करीब आया देखकर वह छटपटाई भी गिड़गिड़ाई भी, लेकिन सब बेकार। किसी भी चीज को बेहद तेजी से अपने अंदर खींच लेने वाली मशीन ने उस भ्रूण रूपी बच्ची को भी अपने अंदर खींच लिया। और वह बच्ची इस रंग-बिरंगी दुनिया से रूबरू होने के सुनहरे सपने आंखों में बसाए दुनिया में आने से पहले ही अलविदा हो गई। बचे थे तो सिर्फ बच्ची के कोमल शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े, ढेर सारा खून और एक खामोशी....
यह कोई फीचर फिल्म नहीं, बल्कि किसी अजन्मे बच्चे के अबॉर्शन का दृश्य है। भले ही पढ़ने और देखने वालों को यह बड़ा दर्दनाक महसूस हो रहा हो, लेकिन ऐसे दृश्य हमारे देश में रोजाना ना जाने कितनी बार दोहराए जाते हैं। न जाने कितनी बच्चियां रोजाना उनके `अपनों´ की वजह से दुनिया में आने से पहले ही काल के गाल में समा जाती हैं। कल को इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, प्रतिभा पाटिल और कल्पना चावला बनने की कूवत रखने वाली उन बच्चियों को अपनी असमय और दर्दनाक मृत्यु से ज्यादा दुख इसी बात का होता है कि उन्हें इस दर्दनाक तरीके से मौत देने वाले उनके `अपने´ ही होते हैं। वैसे तो नारी को दया और त्याग की प्रतिमूर्ति माना जाता है, लेकिन उन्हें उस बच्ची के दर्द का बिल्कुल अहसास नहीं होता जिसे वे `कुलदीपक´ की चाहत में कुर्बान कर रही हैं। यह एक दर्दनाक सच्चाई है कि इन अजन्मी बच्चियों की सबसे बड़ी दुश्मन उनकी दादी, मम्मी और बुआ ही होती हैं।

जब अपने ही बने दुश्मन
अक्सर महिलाओ से जुड़े कार्यक्रमों में हम लोग महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ते नजर आते हैं, लेकिन उससे पहले एक बार अपने गिरेबान में झांककर देखें कि वाकई हम इसके लिए तैयार हैं। यह समाज से जुड़ी एक कड़वी सच्चाई है कि इन कसीदे पढ़ने वालों में ना जाने कितनों ने अपनी ही बच्ची को जन्म लेने से पहले ही मौत की नींद सुला दिया होगा। अक्सर हम लोग यह कहकर अपने आपको को झूठा दिलासा देते हैं कि आजकल समाज की सोच बदल रही है। पढ़े-लिखे लोग लड़के और लड़कियों को एक ही नजर से देखते हैं। वे उन्हें पढ़ाई और दूसरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में कोई भेदभाव नहीं करते। लेकिन यह बातें सिर्फ कहने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं। सच यह है कि चाहे अमीर हो या गरीब लड़कियों के मामले में सबकी सोच एक जैसी ही है। भले ही हम ऊपर से लड़की को लक्ष्मी का रूप मानते हैं, लेकिन असलियत में कोई नहीं चाहता कि वह `लक्ष्मी´ उसके घर आए।

राजधानी में घटता सेक्स रेशो
पिछले दिनों एक एनजीओ सेंटर फॉर सोशल रिसर्च द्वारा किए गए एक सर्वे में यह शर्मनाक तथ्य सामने आए हैं कि देश की राजधानी दिल्ली कन्या भ्रूणों की हत्या के मामले में भी `राजधानी´ है। 2007 में किए गए एक प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लेनसट के सर्वे के मुताबिक राजधानी और एनसीआर में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 762 लड़कियां मौजूद हैं। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में यह अनुपात 1000 के मुकाबले 886 था। जबकि उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों पर 927 लड़कियां था। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि देश के धनी राज्य माने जाने वाले दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र अजन्मी लड़कियों के लिए कत्लगाह के रूप में सामने आए हैं। इन आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि हम लोग धरती को लड़कियों से मुक्त करने के निर्मम मिशन पर बेहद तेजी से काम कर रहे हैं। हमें उस पल का बिल्कुल अंदाजा नहीं है, जब लड़कियों की कमी की वजह से कई लोगों को कुंवारा रहना होगा। अभी भी कई राज्यों में लड़कियों की कमी की वजह से केरल और उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों से दुल्हनें खरीद कर लाने की नौबत आ चुकी है।

लड़की पराया धन होती है?
अफसोस की बात यह है कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे हम लोगों के ख्यालात अभी भी सत्तरहवीं सदी वाले ही हैं। सर्वे में बताया गया है कि हम लोग अभी भी उसी लकीर को पीट रहे हैं कि लड़की पराया धन होती है, जिसे कल को दूसरे घर जाना होता है। इसलिए उसकी पढ़ाई-लिखाई पर पैसा खर्च करने से कोई फायदा नहीं है। पढ़ाई पर पैसा खर्च करने के बाद भी दहेज देना पड़ेगा। जबकि लड़के बुढ़ापे का सहारा होते हैं, वंश चलाते हैं और माता-पिता का अंतिम संस्कार करते हैं। अब हम लोगों को कौन समझाए कि सच्चाई इसके उलट है। अगर वास्तविकता के धरातल पर आकर सोचा जाए, तो पता चलेगा कि आजकल लड़कियों से पहले लड़के घर छोड़कर चले जाते हैं। आज के युग में ज्यादातर बच्चें बारहवीं के बाद ही आगे की पढ़ाई करने के लिए दूसरे शहर चले जाते हैं। उसके बाद वे लगातार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक दिन इतना ऊपर पहुँच जाते हैं कि मां-बाप को भी नजर आना बंद हो जाते हैं। जी हां, पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़के विदेशों या बड़े शहरों में `अपनी फैमिली´ के साथ सेट हो जाते हैं। जबकि मां-बाप उनके कभी-कभी घर आने की बाट जोहते रहते हैं। इनमें से विदेशों में रहने वाले कई `सुपुत्र´ तो ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने मां-बाप के अंतिम संस्कार के वक्त आना भी गवारा नहीं होता।

बदल रही है फिजा
अगर खुले दिमाग से सोचा जाए, तो वह जमाने लद गए जब लड़कियां अपने मां-बाप पर बोझ हुआ करती थीं। आधुनिक समाज में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जहां लड़के मां-बाप को छोड़कर चले गए और लड़कियों ने उन्हें सहारा दिया है। 55 वर्षीय सुषमा बताती हैं, `शादी के पांच साल बाद ही मेरे पति की एक एक्सीडेंट में डेथ हो गई थी। मैंने नौकरी करके अपनी दोनों लड़कियों और एक लड़के को पढ़ाया है। लड़का शादी के बाद विदेश चला गया है। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती, इसलिए मैं बड़ी लड़की-दामाद के पास रहती हूँ ।´ साथ ही सिर्फ दहेज के लिए कन्या भ्रूण हत्या करने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि अगर लड़की पढ़ी-लिखी और कमाऊ है, तो उसे दहेज की जरूरत नहीं पड़ती। सुषमा कहती हैं, `मेरी दोनों लड़कियां अच्छी नौकरी कर रही हैं। इसलिए उनके ससुराल वालों ने दहेज की कोई डिमांड नहीं की।´ अपने क्लीनिक के बाहर `अभी पांच हजार खर्च करें और भविष्य के पांच लाख रुपए बचाएं´ जैसे घृणित विज्ञापन लगाने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि पैसा सिर्फ लड़कियों के दहेज पर ही खर्च नहीं होता। अगर कोई इंसान अपने लड़के को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहता है, तो उसे पढ़ाई में दस से बीस लाख तक रुपए तक खर्च करने को तैयार रहना चाहिए।

Saturday 20 September, 2008

बहुत दिनों बाद आईआईएमसी में.....



कल एक अरसे बाद जेएनयू कैंपस स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन (IIMC) जाना हुआ। यह वही जगह है, जहां मैंने अपनी जिंदगी का स्वर्णिम वक्त बिताया है। वाकई उन दिनों की यादें मेरे दिलोदिमाग में कुछ इस तरह से बस गई हैं कि 615 नंबर की मिंटो रोड से पूर्वाचंल हॉस्टल जाने वाली बस में बैठते ही ऐसे ताजा हो गई, मानो कब से इसी पल का इंतजार था। उन दिनों हम स्टूडेंट पास से इस बस में मुफ्त सफर किया करते थे। सो कंडक्टर के टिकट कहते ही मुंह से अनायास ही `पास´ निकल पड़ा। लेकिन तभी मैंने वर्तमान में वापसी करते हुए कंडक्टर को वापस बुलाकर कहा कि पास खत्म हो गया, लो पूर्वाचंल हॉस्टल की टिकट काट दो।
जेएनयू से बस गुजरने के दौरान वहां के हसीन नजारों, गंगा ढाबे पर बिताई शामों और मामू के ढाबे पर किए कई बेहतरीन लंच की यादों को याद करता हुआ, मैं पूर्वाचंल हॉस्टल पहुंच गया। हालांकि मैं घर से नाश्ता करके गया था, लेकिन वहां की फेमस परांठे वाले की दुकान ने अपनी और खींच ही लिया। अभी अभिनीत और रश्मि के आने में वक्त था। इसलिए थोड़ी देर रुक कर परांठों का आनंद लेने में कोई बुराई नहीं थी। यह अभिनीत का ही प्रोग्राम था जिस वजह से बहुत दिनों बाद मैं आईआईएमसी गया था। वहां पर आलू-छोले की सब्जी और दही के साथ गर्मागर्म आलू और सत्तू के परांठे खाते वक्त मुझे वह दिन याद आ रहे थे, जब भरी सर्दी के दिनों में हम लोग लंच ब्रेक के दौरान वहां परांठे खाने आया करते थे। वाकई कंपकंपाती सर्दी में वहां धूप में बैठकर परांठे खाने का मजा ही कुछ और हुआ करता था।
पेट से ज्यादा मन की क्षुधा तृप्त करने के बाद मैंने पूर्वाचंल हॉस्टल से आईआईएमसी ओर जाने वाली पगडंडी का रुख किया। उस वक्त मैं अपने पुराने रूम मेट विवेकानंद और पवन को बेहद मिस कर रहा था, जिनके साथ किसी वक्त में मैं पूरे नौ महीने तक रोजाना वह सफर तय किया करता था। ऐसा लग रहा था, मानों अभी विवेकानंद की आवाज आएगी, `अमां यार प्रशांत जरा तेज कदम बढ़ाओ।´ इन्हीं यादों में खोए हुए इंस्टिट्यूट का एंट्री गेट और गल्र्स हॉस्टल आ गया। हालांकि अब पिछले कई सालों से बन रहा बॉयज हॉस्टल भी तैयार होता नजर आया, लेकिन सुनने में आ रहा है कि वह भी लड़कियों को ही दिया जाएगा। और हम जैसे बॉयज स्टूडेंट मुनिरका, बेरसराय और कटवारिया सराय की तंग गलियों में ही अपने कोर्स के नौ महीने काटने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
खैर मैं अभिनीत से मिलने के लिए पहले से तय की गई जगह मुरली के टपरे पर पहुँच गया। मुरली का टपरा आईआईएमसी के पिछले हिस्से में बनी चाय की दुकान को कहा जाता है। जहां चट्टान जैसे पत्थरों पर बैठकर स्टूडेंट चाय की चुस्कियों के साथ बौद्धिक जुगाली करते हैं। हैरान ना हों, देश के प्रीमियर मॉस कॉम इंस्टिट्यूट के स्टूडेंट्स से यह अपेक्षा की जाती है कि वे चाय पीते वक्त भी साथियों के साथ सम-सामयिक मुद्दों पर गर्मागर्म बहसें करें। और अक्सर हम लोग वहां बैठकर यही किया करते थे। हमारे कुछ साथी इस दौरान सिगरेट की सहायता भी लिया करते थे। तभी हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स कुछ स्टूडेंट वहां आ गए और चाय के साथ सिगरेट के कश मारने लगे।
यहां यह बात विचारणीय है कि मैंने पहली बार में ही ऐसा कैसे सोच लिया कि वे हिंदी के स्टूडेंट नहीं थे। दरअसल, उन्हें देखकर मुझे इंस्टिट्यूट में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई। जब इसी जगह पर मैं लड़कियों को सिगरेट पीता देखकर आश्चर्यचकित हो गया था। हमारे मेरठ के कॉलेजों में में तो लड़के-लड़कियों के थोड़ी देर कहीं बैठकर बात करने पर ही प्रोफेसर टोक दिया करते थे और यहां लड़का-लड़की साथ में सिगरेट पी रहे थे! इस सच को स्वीकार करने में मुझे थोड़ा वक्त लगा था। हमारे वक्त में भी सिगरेट के कश मारते वे कपल हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स के स्टूडेंट हुआ करते थे और आज भी वे दूसरे कोर्सो के ही स्टूडेंट थे। इसकी पुष्टि मैंने उनसे बातचीत करके कर ली। पता नहीं क्यों, मुझे अभी भी यकीन है कि हिंदी कोर्स के स्टूडेंट अभी इतने आधुनिक नहीं हुए हैं कि लड़का-लड़की साथ बैठकर सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाएं।
खैर तभी सामने से आते अभिनीत और रश्मि दिखाई पड़ गए और मैं अपनी स्मृति यात्रा को यहीं विराम देकर उनकी ओर चल पड़ा!

Saturday 13 September, 2008

हिंदी भाषी देश में हिंदी भाषियों को खतरा!


आज हिंदी दिवस है। पिछले कुछ वक्त तक हिंदी दिवस को देश भर में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता था। लेकिन कुछ हालिया घटनाओं पर नजर डाली जाए, तो अब उस हंसी-खुशी के माहौल में काफी कड़वाहट घुल चुकी है। हाल ही में जया बच्चन के अपने आपको हिंदी भाषी बताने पर मुंबई में मराठी अस्मिता के तथाकथित ठेकेदारों ने इतना हंगामा किया कि पूरा देश हैरान रह गया। उनके निशाने पर सिर्फ जया ही नहीं, बल्कि पूरा बच्चन परिवार था। आश्चर्य की बात यह है कि भाषावाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले ये चंद लोग इतने ताकतवर हैं कि इनके आगे समूचा मुंबई प्रशासन बौना नजर आया। मुंबई पुलिस कमिश्नर को बिना वर्दी के सड़क पर आकर मुकाबला करने की चुनौती मिलना कोई मजाक बात नहीं है।
इसी का नतीजा है कि अमिताभ बच्चन की हालिया रिलीज `द लास्ट लियर´ का बुधवार को मुंबई में आयोजित प्रीमियर हंगामे के डर से रद्द हो गया। पुलिस प्रशासन को मुट्ठी भर लोगों के आगे इतना बेबस देखकर अमिताभ बच्चन के सामने माफी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। उन्होंने अपनी कोई गलती नहीं होने बावजूद उनके अंह की तुष्टि के लिए देश भर के मीडिया के सामने माफी मांग कर इस विवाद को विराम दे दिया। मराठी अस्मिता के इन तथाकथित ठेकेदारों के संस्कारों का अंदाजा राज्य सभा सांसद और वरिष्ठ अभिनेत्री जया बच्चन के लिए एक बयान से लगाया जा सकता है। इस बयान में कहा गया था, `गुड्डी बुड्डी हो गई है, लेकिन अक्ल नहीं आई।´ शायद ही पूरे भारत में कहीं भी अपने बड़ों के लिए इस तरह के शब्द प्रयोग नहीं किए जाते होंगे।
ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब मुंबई में बिहार और यूपी के हिंदी भाषी लोगों पर कहर बरपा था। राजनीति की रोटियां सेंकते वक्त नेता लोग यह भूल जाते हैं कि ये बेचारे लोग अपना घर-बार छोड़ कर यहां किसी मजबूरी की वजह से ही आए हुए हैं। साथ ही वे लोग यह भी भूल जाते हैं कि इन बेचारे मजबूर लोगों ने माया नगरी कही जाने वाली मुंबई के विकास में कितना योगदान दिया है। पिछले दिनों ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भारतीय लोगों के लिए शुक्रिया जताते हुए कहा था, `मैं भारतीय लोगों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने हमारे देश के विकास में इतना योगदान दिया। भारतीय लोगों के सहयोग के बिना हम लोग ब्रिटेन को इतनी ऊंचाई पर लाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।´ ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब एक विदेशी किसी दूसरे देश से आए लोगों की तहेदिल से तारीफ कर सकता है, तो एक देश के वासी, एक ही मां के बेटे सिर्फ चंद वोटों की खातिर एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो रहे हैं?

Monday 8 September, 2008

मनभावन तीर्थ है श्री महावीर जी



राजस्थान के करौली जिले में स्थित जैन तीर्थ श्री महावीर जी, जैन धर्म के साथ दूसरे लोगों के बीच भी अपार श्रद्धा का केंद्र है। आमतौर पर हमारे देश में एक शिखर वाले मंदिर बहुतायत में हैं, लेकिन यहां स्थित तीन शिखर वाले मंदिर की बात ही कुछ और है। इस मंदिर में देश-विदेश से जैन धर्मानुयायियों के अलावा पूरे राजस्थान से गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी आते हैं। यही वजह है कि हर साल महावीर जयंती के मौके पर यहां लगने वाले मेले में जैनियों के अलावा दूसरे संप्रदायों के लोग भी काफी संख्या में आते हैं। इस मेले को राजस्थान टूरिज़म प्रदेश के महत्वपूर्ण आयोजनों में से एक मानता है।
नई दिल्ली स्टेशन से सुबह साढ़े सात बजे स्वर्ण मंदिर मेल से हमारी यात्रा की शुरुआत हुई। श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा, केवलादेव पक्षी विहार के लिए प्रसिद्ध भरतपुर और बयाना जंक्शन पर रुकती हुई ट्रेन 12 बजे श्री महावीर जी स्टेशन पर पहुंच गई। स्टेशन पर उतरते ही वहां भगवान महावीर की प्रतिमा देखकर मन पवित्र हो जाता है। वहां हरेक ट्रेन के वक्त पर यात्रियों को स्टेशन से लेने के लिए मंदिर कमिटी की बस आती है। उसी बस से हम मुख्य मंदिर तक पहुंचे। कमरा आदि बुक कराने के बाद हम तरोताजा होकर अन्नपूर्णा भोजनालय में गए। घर से बाहर इतना शुद्ध और सात्विक भोजन खाकर तबीयत प्रसन्न हो गई। कुछ देर तक कमरे पर विश्राम करने के बाद हम शाम को आरती के लिए मंदिर पहुंचे। आरती के लिए जैन धर्मानुयायियों के अलावा सिर पर पगड़ी बांधे गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी मौजूद थे। उनके साथ लंबे-लंबे घूंघट निकाले महिलाएं भी पूरे उत्साह से आरती में भाग ले रही थीं। श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए मंदिर के चारों और फेरी (परिक्रमा) लगा रहे थे।
यहां स्थित भगवान महावीर को 'टीले वाले बाबा' के रूप में जाना जाता है। इसके बारे में एक लोक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि आज से करीब 400 साल पहले श्री महावीर जी गांव को चांदनपुर के नाम से जाना जाता था। वहां एक ग्वाला अपने परिवार सहित रहता था। एक दिन जब उसकी गाय जंगल से चरकर लौटी, तो उसने बिल्कुल दूध नहीं दिया। रोज-रोज ऐसा होना गरीब ग्वाले के लिए परेशानी का सबब बन गया। एक दिन परेशान ग्वाला गाय का पीछा करते हुए जंगल में पहुंचा, तो गाय एक टीले के ऊपर खड़ी हो गई और थनों से अपने आप दूध बहने लगा। यह देखकर ग्वाला डर गया और घर भाग आया। घर आकर उसने बताया कि जंगल वाले टीले में कोई देव है, जो हमारी गाय का दूध चुरा लेता है। उसने टीले को खोदकर उसकी सचाई जानने की सोची। पूरे दिन टीले की खुदाई करने के बावजूद उसे कुछ नजर नहीं आया। रात को उसे सपना आया कि कल भी खुदाई जारी रखना।
अगले दिन थोड़ी ही खुदाई करने पर उसे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की यह मनभावन मूर्ति मिली। ग्वाले ने मूर्ति को वहीं विराजमान कर दिया और खुद भी वहीं रहने लगा। रोज सुबह उठकर मूर्ति को दूध चढ़ाता और शाम को घी के दीपक से आरती करता। धीरे-धीरे आसपास के गांवों के लोग भी वहां आने लगे। श्री महावीर जी में हर साल महावीर जयंती के अवसर पर चैत्र शुक्ल 13 से वैशाख कृष्णा द्वितीया तक पांच दिवसीय मेला लगता है। इस मेले में प्रभु की प्रतिमा को रथ पर बैठा कर गंभीर नदी के तट पर ले जाया जाता है। साथ में उत्साह से भजन गान कर रहे भक्तों की मंडली होती है। नदी तट पर भव्य पंडाल में प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है। इस रथ यात्रा का खास आकर्षण मीणा और गुर्जर समुदाय की नृत्य मंडलियां होती हैं।
पंडाल जाते वक्त मीणा और आते वक्त गुर्जर नर्तक अपना कमाल दिखाते हैं। भगवान के रथ का संचालन सरकारी अधिकारी द्वारा किया जाता है। श्री महावीर जी स्टेशन पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-मुंबई बड़ी रेल लाइन पर स्थित है। यहां सभी एक्सप्रेस ट्रेन रुकती हैं। इसके अलावा दिल्ली से बस सेवा भी उपलब्ध है। श्री महावीर का निकटतम एयरपोर्ट जयपुर है।
मंदिर कमिटी की धर्मशालाओं में डीलक्स और एसी रूम में रुकने की व्यवस्था है। मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर फाइव स्टार रिजॉर्ट सुविधा भी उपलब्ध है। खाने-पीने के लिए मंदिर कमिटी की अन्नपूर्णा भोजनशाला के अलावा निजी भोजनालय भी हैं।
श्री महावीर जी में मुख्य मंदिर के अलावा तीन और जिन (जैन) मंदिर हैं। इनमें मुख्य मंदिर के पास ही स्थित कांच का मंदिर विशेष तौर पर दर्शनीय है। साथ ही मुख्य मंदिर के नीचे स्थित ध्यान केंद्र में स्थित सैकड़ों रत्न प्रतिमाएं भी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र होती हैं। पास ही स्थित म्यूजियम में खुदाई में समय-समय पर मिले अभिलेख आदि संग्रह करके रखे गए हैं। इनसे जैन कला और संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिलता है। यहां स्थित पुस्तकालय में जैन संस्कृति से संबंधित प्राचीन ग्रंथ और पांडुलिपियां भी मौजूद हैं। अगर थोड़ा वक्त लेकर जाया जाए, तो श्री महावीर जी से 90 किलोमीटर आगे चमकौर जी जैन मंदिर और रणथंभौर नैशनल पार्क देखे जा सकते हैं। इसी तरह दिल्ली वापस आते वक्त श्री महावीर जी से 84 किलोमीटर पहले भरतपुर पक्षी विहार भी देखा जा सकता है।

फिल्म स्टार्स @ पॉलिटिक्स


भले ही लोग पॉलिटिक्स की दुनिया को कितना ही भला-बुरा कहते हों, लेकिन इसकी पावर को देखते हुए सबके भीतर पॉलिटिक्स जॉइन करने की चाहत छुपी रहती है। आम आदमी ही नहीं, बल्कि फिल्म स्टार्स भी इसे जॉइन करने की चाहत से बच नहीं पाते। हाल ही में साउथ के सुपर स्टार चिंरजीवी ने प्रजा राज्यम नाम की पॉलिटिकल पार्टी की स्थापना की है। आइये फिल्मी सितारों के पॉलिटिक्स की दुनिया तक के सफर पर डालते हैं एक नजर :
हाल ही साउथ सिनेमा के सुपर स्टार चिंरजीवी ने आंध्र प्रदेश में `प्रजा राज्यम´ नाम की एक पॉलिटिकल पार्टी की स्थापना की है। `मैटिनी आइडल´ के नाम से मशहूर इस हीरो को सपोर्ट करने के लिए पार्टी की स्थापना के वक्त कई लाख मौजूद थे। अपनी फिल्मों में ज्यादातर आम जनता की मदद करने वाले हीरो का रोल करने वाले चिंरजीवी के चाहने में वालों की यूथ की संख्या काफी ज्यादा है। साउथ के फिल्म स्टारों के पॉलिटिक्स के मैदान में अच्छे रिकॉर्ड को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि चिंरजीवी कुछ कमाल दिखा सकते हैं।
गौरतलब है कि इससे पहले तेलुगू स्टार एम. जी. रामाचंद्रन भी पॉलिटिक्स में लंबी पारी खेल चुके हैं। शुरुआत में कांग्रेस के मेंबर रहे एमजीआर बाद में डीएमके में शामिल हो गए। डीएमके से मतभेद होने पर उन्होंने एआईएडीएमके के नाम से अपनी नई पार्टी बना ली और तमिलनाडु के चीफ मिनिस्टर बन गए। इसी तर्ज पर तेलेगु फिल्मों की सुपरस्टार जयललिता ने भी एआईएडीएमके जॉइन करके अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत की। राज्यसभा सदस्य मनोनीत की गई जयललिता ने उसके बाद मुड़कर नहीं देखा। बाद में जयललिता तमिलनाडु की पहली महिला चीफ मिनिस्टर बनी।
शायद साउथ की जनता फिल्मी स्टार्स को पॉलिटिक्स में देखना काफी पसंद करती है। यही वजह है कि एनटीआर के नाम से मशहूर सुपर स्टार एन. टी. रामाराव को भी राजनीति में आना पड़ा। कहा जाता है कि एक फिल्म के प्रमोशन के दौरान एनटीआर के एक फैन ने उनसे पूछा कि हम आपको भगवान की तरह मानते हैं, लेकिन आपने हमें बदले में क्या दिया। गौरतलब है कि उनके द्वारा निभाए गए भगवान श्रीकृष्ण के रोल को काफी पसंद किया गया था। एनटीआर ने तेलुगू देशम पार्टी की स्थापना की। नाटकीय तरीके से बनी पार्टी ने अपने गठन के 9 महीने बाद ही सत्ता हासिल कर ली और एनटीआर आंध्र प्रदेश के चीफ मिनिस्टर बन गए।
जहां साउथ के सितारों को पॉलिटिक्स की गलियां बहुत रास आईं, वही इसके उलट बॉलिवुड के कुछ स्टार इसमें हाथ भी जला बैठे। अपने पारिवारिक मित्र राजीव गांधी की वजह से अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद सीट पर चुनाव लड़ा और यूपी के पूर्व चीफ मिनिस्टर हेमवती नंदन बहुगुणा को रिकॉर्ड अंतर से हराया। हालांकि यह पारी ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल पाई और अमिताभ ने अपने कार्यकाल के बीच में ही एमपी की सीट से इस्तीफा दे दिया। अमिताभ पिछले दिनों भले ही समाजवादी पार्टी के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार करते नजर आए हों, लेकिन सक्रिय पॉलिटिक्स में आने का इरादा उन्होंने त्याग दिया है। उसी दौरान जयप्रकाश नारायण से प्रभावित `शॉटगन´ शत्रुघ्न सिन्हा ने भी फिल्मी करियर के पीक पर पॉलिटिक्स में आने का फैसला किया। खास बात यह थी कि उन्होंने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत के लिए बीजेपी को चुना, जो उस वक्त सिर्फ दो संसद सदस्यों के साथ संघर्ष कर रही थी। सिन्हा के लिए पॉलिटिक्स की राह इतनी आसान नहीं रही। बाद में उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में सेंट्रल हेल्थ मिनिस्टर बनाया गया।
ऐसा नहीं है आज पॉलिटिक्स के आकाश में चमक रहे सभी सितारे संघर्ष करके आए हैं। ऐसे भी कई लोग हैं, जो अपने स्टारडम की बदौलत सीधे ही यहां आकर चमकने लगे। अपने जमाने के जाने-माने स्टार विनोद खन्ना ने बीजेपी जॉइन करके पॉलिटिक्स में एंट्री की। उन्होंने गुरुदास पुर सीट पर लगातार तीन बार से एमपी रहे सुखबंस कौर भिंडर को हरा दिया। वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भी खन्ना ने अपनी लोकसभा सीट को बनाए रखा।
थोड़ा देर से सही, लेकिन फिल्मों में काफी लंबी पारी खेलने के बाद धर्मेन्द्र ने भी साथी कलाकारों की राह चलते हुए पॉलिटिक्स की दुनिया का स्वाद चखने का फैसला किया। उन्होंने `फिल्मी सितारों की पार्टी´ कही जाने वाले बीजेपी ही जॉइन की। पार्टी ने पिछले में आम चुनाव में उन्हें राजस्थान की बीकानेर लोकसभा सीट पर टिकट दिया। अपने स्टारडम की बदौलत धर्मेंद्र ने चुनाव तो जीत लिया, लेकिन वहां की जनता की उम्मीद पर खरे नहीं उतर पाए।
इसी तरह फिल्मी दुनिया के चमकदार सितारों में से एक गोविंदा ने अपने करियर को ढलान पर जाता देख पॉलिटिक्स जॉइन करने का फैसला कर लिया। उन्होंने दूसरे सितारों अपोजिट जाते हुए कांग्रेस का हाथ थामा। उन्होंने पिछले आम चुनावों में तत्कालीन सेंट्रल पेट्रोलियम मिनिस्टर और पांच बार से नॉर्थ मुंबई के एमपी रह चुके राम नाइक को हराया। हालांकि गोविंदा भी धर्मेंद्र की तरह अपनी लोकसभा सीट पर ज्यादा वक्त नहीं दे पाते। इसलिए नॉर्थ मुंबई के लोग भी उनसे परेशान हैं।
भले ही जयाप्रदा का फिल्मी एक्सपीरियंस राजनीति के मैदान में मौजूद साथियों से थोड़ा कर रह जाए, लेकिन राजनीति के मामले में वह आगे हैं। इस खूबसूरत अभिनेत्री ने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत तेलुगू देशम पार्टी के साथ की। पार्टी सुप्रीमो चंद्र बाबू नायडू ने उन्हें राज्यसभा सदस्य नॉमिनेट किया। हालांकि बाद में नायडू से मतभेद की वजह से उन्होंने समाजवादी पार्टी जॉइन कर ली। पार्टी ने उन्हें पिछले आम चुनाव में रामपुर लोकसभा सीट से टिकट दिया। स्टारडम के सहारे उन्होंने इस सीट पर जीत हासिल कर ली।
अपने पति धर्मेंद्र के साथ हेमा मालिनी ने भी पॉलिटिक्स जॉइन करने का फैसला कर लिया था। हालांकि उन्होंने बैक डोर चुना। वह बीजेपी की राज्यसभा सदस्य हैं। पार्टी पॉलिटिक्स में काफी एक्टिव रहने वाली हेमा सभी मीटिंग अटेंड करती हैं। साथ ही चुनावों के दौरान वह बीजेपी के लिए स्टार प्रचारक की भूमिका भी निभाती हैं। इस उम्र में भी बेहद खूबसूरत नजर आने वाली इस अभिनेत्री की चुनावों में मांग का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी की ओर से उन्हें स्पेशल हेलिकॉप्टर दिया जाता है।

Thursday 4 September, 2008

डूसू इलेक्शन में पोस्टर के रंग


डीयू स्टूडेंट्स यूनियन इलेक्शन का रंग न सिर्फ यूनिवर्सिटी, बल्कि पूरी दिल्ली पर चढ़ता है। चाहे कॉलोनी हो या सड़क, फ्लाईओवर हो या बिजली के खंभे, चुनावी पोस्टर्स से अटे रहते हैं। जाहिर है, इतने बड़े लेवल पर चुनाव प्रचार करने में काफी खर्च आता है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि विधानसभा इलेक्शन, डीयू इलेक्शन के मुकाबले सस्ता पड़ता है। लेकिन इस बार फिजा बदल सकती है। स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में पैसे के जोर को रोकने के लिए डीयू एडमिनिस्ट्रेशन ने इस साल इलेक्शन में प्रिंटेड पोस्टर्स को बैन कर दिया है। अब पूरे शहर की बजाय चुनावी पोस्टर्स सिर्फ कॉलेजों की वॉल ऑफ डेमोक्रेसी पर लगाए जाएंगे और वह भी हैंडमेड।
हालांकि पिछली बार के चुनाव में भी इस तरह के कदम उठाने की बातें कही गई थीं, लेकिन उन्हें सही तरीके से लागू नहीं किया सका और इस बार भी मामला ढीला ही लग रहा है। प्रशासन ने प्रिंटेड पोस्टर्स पर पाबंदी के लिए सत कदम तो उठाए हैं, लेकिन स्टूडेंट लीडर्स भी कम नहीं हैं। उन्होंने नियमों की काट ढूंढ ली है। यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने किसी कैंडिडेट का फोटो लगाकर वोट मांगने वाले पोस्टर को बैन किया है, किसी और तरह के पोस्टर को नहीं। अगर जॉइन एबीवीपी या फिर जॉइन एनएसयूआई वाले पोस्टर पर कैंडिडेट की फोटो लगा दी जाए, तो कोई परेशानी नहीं है। बस इसी का फायदा छात्र नेता उठा रहे हैं। नॉर्थ कैंपस के कॉलेज इस तरह के पोस्टर्स से अटे पड़े हैं, जबकि हैंडमेड पोस्टर लगाने के लिए फिक्स की गई `वॉल ऑफ डेमोक्रेसी´ खाली पड़ी हैं। काफी ढूंढने पर रामजस कॉलेज के सामने वाली `वॉल ऑफ डेमोक्रेसी´ पर गिनती के हैंडमेड पोस्टर नजर आए। एनएसयूआई के एक कार्यकर्ता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि प्रिंटेड पोस्टर को बैन किया गया है, लेकिन प्रिंटेड हैंड बिल पर कोई रोक नहीं है, इसलिए हम पोस्टर की बजाय हैंड बिल का यूज प्रचार में कर रहे हैं।
डूसू के चीफ इलेक्शन ऑफिसर गुरमीत सिंह भी यह मानते हैं कि अगर पार्टी द्वारा अपने प्रचार के लिए छपवाए गए किसी पोस्टर में कैंडिडेट की फोटो लगवा दी जाती है, तो वह प्रतिबंध के दायरे में नहीं आता। लेकिन यह भी तो अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार है? इस सवाल पर सिंह कहते हैं, `अगर किसी ने जॉइन एनएसयूआई या जॉइन एबीवीपी के पोस्टर लगा रखे हैं, तो यह प्रतिबंध के दायरे से बाहर है।´ लेकिन अगर कोई कैंडिडेट अपने किसी विरोधी कैंडिडेट के पोस्टर छपवा कर लगवा दे,तो? गुरमीत कहते हैं, `तो किसी पर एकदम से कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। हम नोटिस देकर उन्हें बुलाएंगे, उनका पक्ष सुनने के बाद ही कार्रवाई की जाएगी।´
पोस्टरों पर पाबंदी को लेकर भले ही यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन की सोच कुछ भी रही हो, लेकिन स्टूडेंट्स यूनियन इस फैसले से खुश नहीं हैं। एनएसयूआई के प्रवक्ता आनंद पांडे बताते हैं, `सबसे बड़ी बात यह है कि पोस्टर लगाना कोई गुनाह नहीं है, तो फिर उन्हें बैन क्यों किया जा रहा है। सच तो यह है कि इस वक्त स्टूडेंट पॉलिटिक्स एक बड़े षडयंत्र की शिकार हो रही है। जब नेताओं को चुनाव प्रचार के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध की जाती हैं, तो हमारे साथ भेदभाव क्यों? अगर यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन नहीं चाहता कि हम लोग पोस्टर लगाएं, तो फिर उन्हें अमेरिकन यूनिवर्सिटीज की तर्ज पर कोई प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना चाहिए।´
दूसरी ओर, छात्र राजनीति के पुराने खिलाड़ी एबीवीपी के प्रदेश सहमंत्री विकास दहिया कहते हैं, `डीयू बहुत बड़ा कैंपस है। यहां आप स्टूडेंट टु स्टूडेंट एप्रोच नहीं कर सकते। इसलिए प्रिंटेड पोस्टर ही एक सहारा था। जहां प्रिंटेड पोस्टर की कॉस्ट एक से डेढ़ रुपए होती है, वहीं हैंडमेड की कॉस्ट इसके कई गुना आती है। जाहिर है, अब हम उस लेवल पर प्रचार नहीं कर पाएंगे। इसलिए यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन को चाहिए कि वह प्रेजिडेंशल डिबेट जैसे आयोजन करके कैंडिडेट्स को अपने प्रचार का मौका दे।