Monday 25 August, 2008

सितारों से निराशा, जुगनूओं ने जगाई आशा



पेइचिंग ओलिंपिक खत्म हो गया है। भारत समेत तमाम देशों को मिले मेडल्स की गिनती करीब-करीब तय हो गई है। अगर अभिनव बिंद्रा के गोल्ड और सुशील कुमार, विजेंद्र कुमार के ब्रांन्ज मेडल को छोड़ दिया जाए, तो काफी उम्मीदों के साथ चाइना पहुंचे भारतीय दल को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी है। ओलिंपिक के लिए जाने से पहले से कुछ खिलाडियों को लेकर बड़े-बडे़ दावे किए गए थे। यह बात और है कि वे उन्हें हकीकत में बदलने में पूरी तरह नाकाम रहे। इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है कि जिन स्टार खिलाडियों से गोल्ड की उम्मीद की जा रही थी, वे क्वालिफाई करने में भी नाकाम रहे। जबकि कुछ अंजान `जुगनू´ नए सितारों के रूप में सामने आए हैं।

नहीं संभला उम्मीदों का ध्वज
लेफ्टिनेंट कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर न सिर्फ भारतीय ओलिंपिक दल के ध्वजवाहक थे, बल्कि भारतीय उम्मीदों के भी `ध्वजवाहक´ थे। उन्होंने असली ध्वज तो उठा लिया, लेकिन `भारतीय उम्मीदों का ध्वज´नहीं संभाल पाए। गौरतलब है कि राठौर डबल ट्रैप शूटिंग के क्वालिफाइंग मुकाबले में ही बाहर हो गए। 2004 में एथेंस ओलिंपिक खेलो के दौरान सिल्वर मेडल जीतने के बाद चारों और उनके ही नाम की चर्चा थी। बतौर मेजर पदक जीतने वाले राठौर को आर्मी ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देते हुए लेफ्टिनेंट कर्नल बना दिया। पेज थ्री की दुनिया ने भी क्रिकेट और बॉलिवुड से अलग उभरे इस स्टार को हाथोंहाथ लिया। सभी ने सिल्वर जीतने वाले राठौर से पेइचिंग ओलिंपिक में गोल्ड का सपना देखा। मेलबर्न कॉमनवेल्थ गेम्स तक तो वह ठीकठाक फॉर्म में थे, लेकिन उसके बाद राठौर फॉर्म से बाहर हो गए। शायद पेज थ्री पार्टियों में बिजी रहने की वजह से उन्हें प्रैक्टस के लिए वक्त नहीं मिल पाया होगा।

फ्लॉप हो गईं सानिया
सानिया मिर्जा भारतीय पेज थ्री का एक जाना-माना चेहरा हैं। लॉन टेनिस जैसे खेल में किसी ग्लैमरस लड़की की उपस्थिति को हाथोंहाथ लिया गया। साथ ही स्कर्ट को लेकर उठे विवादों ने उन्हें और ज्यादा लाइम लाइट में ला दिया। शाहिद कपूर के साथ अपने `कनेक्शन´ की वजह से सानिया लगातार खबरों में बनीं रहती हैं। ओलिंपिक के लिए जाने से पहले सानिया के शाहिद के साथ `किस्मत कनेक्शन´ का स्पेशल शो देखने की भी खबरें हैं। शायद इस वजह से उन्हें प्रैक्टस के लिए वक्त नहीं मिल पाया होगा। इसलिए ओलिंपिक मार्च पास्ट के लिए तैयार होने के वक्त भी वह `प्रैक्टस´ में बिजी थीं। यही वजह थी कि मार्च पास्ट में वह ऑफिशल ड्रेस ग्रीन साड़ी की बजाय ट्रैक सूट में नजर आईं।

अंजू की फाउल जंप
राजीव गांधी खेल रत्न और अर्जुन पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित खेल पुरस्कारों से सम्मानित अंजू बॉबी जॉर्ज से इस ओलिंपिक में काफी उम्मीदें लगाई गई थीं। कहा जा रहा था कि वह कभी भी कोई चमत्कार करने की क्षमता रखती हैं। और अंजू ने वाकई में `चमत्कार´ कर दिखाया। क्वालिफाइंग राउंड के दौरान तीन फाउल जंप लगाकर उन्होंने वाकई में `चमत्कार´ ही किया है। किसी ने सोचा भी नहीं था कि 2003 की वर्ल्ड चैंपियनशिप में भारत के लिए पहली बार कोई मेडल जीतने वाली एथलीट इतने शर्मनाक तरीके से ओलिंपिक से बाहर होगी। 2004 में एथेंस ओलिंपिक में उन्होंने 6.7 मीटर की छलांग लगाकर छठा स्थान और 2006 में वल्र्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल जीता था। लेकिन इस साल अंजू 6.5 मीटर की छलांग भी नहीं लगा पाई थीं। उनके हालिया प्रदर्शन को देखते हुए उड़न सिख मिल्खा सिंह ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि उनमें पदक जीतने का दम नहीं है।

ले डूबी आपसी तकरार
2004 के ओलिंपिक में भारत के लिए एकलौता मेडल (ब्रान्ज) जीतने वाले लिएंडर पेस और स्टार टेनिस प्लेयर महेश भूपति की जोड़ी से देश ने काफी उम्मीदें पाल रखी थीं। गौरतलब है कि पिछले काफी दिनों से यह जोड़ी साथ में मैदान पर नहीं उतरी है। इसे ओलिंपिक मेडल जीतने का का प्रेशर ही कहेंगे कि दोनों एक बार फिर से जोड़ी बनाने को मजबूर हो गए। लेकिन उन्हें साथ में प्रैक्टस करने का पूरा वक्त नहीं मिल पाया। जाहिर है कि काफी दिनों बाद साथ खेलने पर उन्हें आपसी टयूनिंग बैठाने में भी परेशानी आई होगी। इन्हीं वजहों से पेस-भूपति की जोड़ी ने क्वॉर्टर फाइनल तक का सफर तो तय कर लिया, लेकिन वहां रोजर फेडरर और वावरिंका की जोड़ी से पार नहीं पा सके। अब शायद दोनों ही यह सोच रहे होंगे कि काश पहले से साथ में प्रैक्टस कर ली होती, तो ओलिंपिक में और बेहतर कर पाते। लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!

भारत को मिले नए स्टार
`स्टार´ खिलाडियों निराशाजनक प्रदर्शन के बावजूद इस ओलिंपिक ने देश को कुछ ऐसे सितारे दिए, जिन्होंने आड़े वक्त पर अपने प्रदर्शन से देश का नाम ऊंचा किया। इनमें से अभिनव बिंद्रा को तो लोग फिर भी पहले से जानते थे। गौरतलब है कि उन्हें राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड मिल चुका है। लेकिन सुशील कुमार, विजेंद्र कुमार, जितेंद्र कुमार, अखिल कुमार, साइना नेहवाल और योगेश्वर दत्त जैसे खिलाडियों को इस पेइचिंग ओलिंपिक की उपलब्धि ही कहा जाएगा।

क्वॉर्टर फाइनल मेनिया
काश भारतीय खिलाड़ी थोड़ा और ज्यादा प्रेशर झेलने का माद्दा रखते, तो आज ओलिंपिक मेडल लिस्ट में भारत के नाम के आगे लिखे मेडलों की संख्या कुछ ज्यादा होती। अगर भारतीय खिलाडियों के ओलिंपिक प्रदर्शन पर नजर डाली जाए, तो वे अपनी कड़ी मेहनत के बल पर पहला, दूसरा राउंड पार करके क्वॉर्टर फाइनल में तो पहुँच गए। देश ने उनसे मेडल की उम्मीदें बांध ली, क्योंकि क्वॉर्टर फाइनल में जीतने पर ब्रांन्ज मेडल पक्का हो जाता है। लेकिन यहां का प्रेशर नहीं झेल पाए और बिखर गए।

क्वॉर्टर फाइनल में आउट हुए खिलाड़ी
साइना नेहवाल - बैडमिंटन
बोम्ब्याला देवी, डोली बनर्जी, परिणीता - तीरंदाजी
लिएंडर पेस महेश भूपति - टेनिस
योगेश्वर दत्त - कुश्ती
अखिल कुमार - मुक्केबाजी
जितेंद्र कुमार- मुक्केबाजी

Monday 18 August, 2008

ओलिंपिक में नहीं चमके `सितारे´


आखिरकार `गोल्डन बॉय´ अभिनव बिंद्रा ने भारत की 28 साल पुरानी गोल्ड मेडल की प्यास को बुझा ही दिया। जबकि `भारतीय उम्मीदों के सूरज´ राज्यवर्धन सिंह राठौर क्वालिफाइंग मुकाबले में ही बाहर हो गए। ओलिंपिक में अभी तक के प्रदर्शन पर नजर डालें, तो भारतीय टीम के `स्टार´ खिलाडियों ने देश को निराश किया। इसके उलट कई ऐसे खिलाडियों ने शानदार प्रदर्शन किया, जिन्हें कोई जानता भी नहीं था। भारतीय ओलिंपिक टीम के फ्लैग बियरर बनने का गौरव प्राप्त करने वाले राठौर पर देश को सबसे ज्यादा भरोसा था, लेकिन अफसोस वह इसे बरकरार नहीं रख पाए। 2004 में राठौर के सिल्वर मेडल जीतने के बाद के उनके सफर पर नजर डाले, तो इस बीच उन्होंने 2006 में मेलबर्न कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड और एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल जीता था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि 2004 में मिले सिल्वर ने राठौर को एक हस्ती बना दिया था। स्वतंत्र भारत के पहले इंडिविजुअल सिल्वर मेडल विनर बनने की वजह से उन पर चारों ओर से रुपयों की बरसात हो रही थी। साथ ही पेज 3 में भी उनकी काफी पूछ हो रही थी। शायद इन्हीं वजहों से राठौर का ध्यान ओलिंपिक की तैयारियों से हट गया और वह पहले ही राउंड में बाहर हो गए। इसी तरह `भारतीय टेनिस सनसनी´ के नाम से जानी जाने सानिया मिर्जा भी दाहिने हाथ की कलाई में लगी चोट की वजह से बाहर हो गई। भले ही खेल के दौरान उनका हाथ जरा सी देर में साथ छोड़ गया हो, लेकिन सानिया ने `प्रैक्टिस´ में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। और तो और जब दूसरे खिलाड़ी ओलिंपिक मार्च पास्ट के लिए ऑफिशल ड्रेस में तैयार हो रहे थे। उस वक्त भी वह `प्रैक्टिस´ कर रही थीं, इसी वजह से मार्च पास्ट में सानिया ट्रैक सूट में दिखाई पड़ीं। उधर शूटर समरेश जंग और तीरंदाज डोला बनर्जी जैसे दूसरे `स्टार´ भी अपनी लाइट बिखेरने से पहले ही बुझ गए। भारत के लिहाज से इस ओलिंपिक की सबसे बड़ी सफलता कुछ नए स्टार्स का सामने आना रही है। जाहिर है कि इनमें सबसे पहला नाम अभिनव बिंद्रा का है। बैडमिंटन प्लेयर साइना नेहवाल ने अप्रत्याशित रूप से क्वॉर्टर फाइनल में पहुँच कर सबको चकित कर दिया। भले ही वह क्वॉर्टर फाइनल से आगे नहीं बढ़ पाई हों, लेकिन उनकी सफलता को कम करके नहीं आंका जा सकता। बाक्सिंग के फील्ड में भी भारत को नए सूरमा मिलें हैं। जीतेंद्र कुमार(51 कि. वर्ग), अखिल कुमार(54 कि. वर्ग)और विजेंदर कुमार (75 कि. वर्ग) ने प्री क्वॉर्टर फाइनल के क्वालिफाई करके पहलवानों के देश भारत का मान बढ़ाया है। इसी तरह आपसी मतभेद भुलाकर उतरी लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी भी ब्राजील को हराकर क्वॉर्टर फाइनल में पहुँच गई है।

Wednesday 13 August, 2008

कब टूटेगी यह चुप्पी......


इंसानी जिंदगी के बदलते तौर तरीको को वक़्त के साथ साथ समाज में मान्यता मिल जाती है, लेकिन सेक्सुअल पसंद में आ रहे बदलावों पर हमारा कानून और समाज दोनों चुप हैं। हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट नें माना की होमोसेक्सुएलिटी को लेकर बने कानूनों पर फिर से विचार की जरुरत है। देखते हैं समाज की इस अलग तस्वीर को
होमोसेक्सुएलिटी एक ऐसा मुद्दा है, जिसके बारे में बात करना हमारे देश में पसंद नहीं किया जाता। अंग्रेजों के जमाने में बने कानून इंडियन पीनल कोड 1860 की धारा 377 के मुताबिक हमारे देश में होमोसेक्सुएलिटी को अपराध माना गया है। यह इंसानी फितरत होती है कि अगर किसी चीज पर रोक लगाई जाए, तो वह उसके खिलाफ जाकर देखने की कोशिश करता है। इसी का नतीजा है कि हमारे देश में अक्सर गे और लेस्बियन जोड़ो के अपने घरों से भागने के केस सामने आते रहते हैं। कई बार तो समाज की प्रताड़ना से बचने के लिए वे लोग स्यूसाइड जैसा कदम भी उठा लेते हैं। इसके बावजूद अभी तक सरकार द्वारा इस बारे में कोई पहल सामने नहीं आई है। हाल ही में माननीय बॉबे हाईकोर्ट द्वारा होमोसेक्सुएलिटी के मुद्दे पर पॉजिटिव कमेंट किए जाने से एक उम्मीद की किरण नजर आई है। बॉबे हाई कोर्ट के जस्टिस बिलाल नजाकी और जस्टिस शारदा बोबडे ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि वक्त के साथ सामाजिक ढांचे में काफी बदलाव आ गया है, जिससे लोगों की सेक्सुअल पसंद चेंज हो गई है। इसे अननेचुरल नहीं माना जाना चाहिए। अब वह वक्त आ गया है, जब करीब एक सेंचुरी पहले बने कानूनों पर दोबारा से विचार किए जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि फिलहाल भारत में धारा 377 का उल्लंघन करने पर 10 साल की सजा का प्रावधान है। जाने-माने वकील प्रशांत भूषण कहते हैं,`माननीय हाईकोर्ट ने एक जरूरी मुद्दे पर सही कमेंट किया है। कोर्ट द्वारा इस तरह की बात कहे जाने से सरकार के ऊपर धारा 377 पर दोबारा से विचार करने का दबाव पड़ेगा। सही मायनों में देखा जाए, तो यह धारा पहले से ही गैर संवैधानिक है।´ वहीं जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, `जब अदालत की ही समझदारी खुल रही है, तो इस मुद्दे का स्वागत किया जाना चाहिए। दरअसल, अभी तक हमारे समाज में इस सेक्सुअल कल्चर को लेकर एक रहस्यमय माहौल रहा है। इस कल्चर में किशोर-किशोरी के बीच के संबंध,समलैंगिकता और वेश्यावृति जैसे मुद्दे शामिल हैं। इन मुद्दों पर बातचीत करने के लिए हमारा समाज कभी भी तैयार नहीं हुआ है।´ गौरतलब है कि भारत में ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी कोर्ट ने होमोसेक्सुएलिटी को अपराध मानने वाले कानून को बदलने की बात कही है। इसके बाद देश भर के गे और लेस्बियन संगठनों में उत्साह का माहौल है। उन्होंने इसका स्वागत किया है। नई दिल्ली स्थित नाज फाउंडेशन पिछले काफी समय से धारा 377 को खत्म किए जाने की मांग कर रहा है। उन्होंने धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने की मांग को लेकर एक पीआईएल भी दायर कर रखी है। नाज फाउंडेशन के कोआडिनेटर राहुल सिंह कहते हैं कि हम कोर्ट की टिप्पणी का स्वागत करते हैं। अगर इंसान की सभी जरूरतें वक्त के साथ बदलती रहती हैं, तो फिर सेक्सुअल जरूरतों की अनदेखी कैसे की जा सकती है। अगर दो एडल्ट लोग अपनी पूर्ण सहमति से कोई संबंध कायम करना चाहते हैं, तो उन पर किसी भी तरह की रोक लगाना बिल्कुल गलत है। `वॉइस अगेन 377´ से जुड़े गे एक्टिविस्ट गौतम कहते हैं, `मैं कोर्ट की टिप्पणीसे पूरी तरह सहमत हूं। वास्तव में अब वह समय आ गया है जब करीब 150 साल पुरानी धारा 377 को खत्म किया जाना चाहिए। पिछले दिनों आई लॉ कमिशन की रिपोर्ट में भी इसे खत्म करने की सिफारिश की गई है। हमारे लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और कुछ नहीं होगी कि हाल ही अपना नया संविधान बनाने वाले नेपाल ने अपने यहां होमोसेक्सुएलिटी को अपराध नहीं माना है।´ अमेरिका से आर्किटेक्ट का कोर्स कर रहे 27 साल के गौतम का मानना है, `इस कानून को खत्म करने से सबसे ज्यादा फायदा उन लोगों को होगा, जिन्हें इसके नाम पर परेशान किया जा रहा है। हमारे पास ऐसे कई केस आते हैं, जिनके समाज के ठेकेदारों द्वारा अपनी सेक्सुअल पसंद चेंज करने के लिए बाकायदा करंट के झटके देकर परेशान किया जाता है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि जब हमारे देश में जात-पात और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, तो सेक्सुअल जरूरतों के आधार पर कैसे किया जा सकता है।´ कई होमोसेक्सुअल संगठनों से जुड़ी लेस्बियन एक्टिविस्ट प्रवदा मेनन कहती हैं, `धारा 377 कानून जिस साम्राज्य से हमारे यहां आया था, वहां भी यह खत्म हो चुका है। जबकि हमारे यहां इसे अभी भी ढोया जा रहा है। हमारे संविधान में भारतीय नागरिकों को हर तरह की स्वतंत्रता दी गई है। अगर कोई महिला पुरुष साथ रह सकते हैं, तो समान लिंग के लोगों के साथ रहने में क्या बुराई है।´ क्या इस धारा को खत्म करने से सामाजिक ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचेगा? 43 साल की अविवाहित मेनन के मुताबिक, `हमारे सामाजिक ढांचे को दहेज हत्या और बाल यौन शोषण से भी नुकसान पहुँच रहा है। विधवा विवाह शुरू करने और सती प्रथा खत्म करने के वक्त भी यही कहा गया था कि इससे सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंचेगा। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जिन लड़कियों के साथ बचपन में किसी पुरुष द्वारा कोई बुरा व्यवहार किया जाता है, वे बाद में लेस्बियन बन जाती हैं। इस हिसाब से तो हमारे देश की ज्यादातर महिलाएं लेस्बियन होनी चाहिए।´ ज्यादा दिनों की बात नहीं है जब राजधानी दिल्ली में हुई पहली गे परेड में देश भर से 500 से ज्यादा होमोसेक्सुअल एक्टिविस्ट आये थे। उन्होंने सरकार से धारा 377 को खत्म करने की मांग की। भारत में होमोसेक्सुअलिटी को सामाजिक और कानूनी स्वीकृति नहीं मिल पाने की वजह से परेड के दौरान उन्होंने अपने चेहरों पर मास्क लगाए हुए थे। साथ ही उन्होंने अपने हाथों में लिए हुए पोस्टरों में लिखा हुआ था कि प्लीज इस मास्क को हटाने में हमारी मदद कीजिए। प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, `माननीय हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद अब हम उम्मीद कर सकते हैं कि एक ऐसा भी दिन आएगा कि होमोसेक्सुअल लोगों को अपने चेहरों पर मास्क लगाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। इन कानूनों के बदलने से हमारे ही समाज के एक अभिन्न अंग समलैगिंको को फिजूल के अपराधबोध से मुक्ति मिलेगी। लेकिन साथ ही इसकी नेगेटिव साइड की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। कानून में आपसी सहमति के आधार पर संबंध स्वीकार्य हों, लेकिन इसके माध्यम से क्रूरता को अनुमति ना दी जाए। खास तौर पर जेल, सेना और लड़कों के आवासीय स्कूलों में समलैगिंकता ने नाम पर काफी क्रूरता देखने को मिलती है। वहां कमजोर लोग अपने से मजबूत लोगों द्वारा यौन शोषण का शिकार बन जाते हैं।´ अगर दूसरे देशों पर नजर डालें, तो वहां होमोसेक्सुएलिटी को कानूनी मान्यता देने की मांग काफी पहले उठ चुकी थी। यही वजह है कि आज डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस और यूनाईटेड किंगडम समेत यूरोप के ज्यादातर देशों में होमोसेक्सुएलिटी के खिलाफ कोई कानून नहीं है। इसके अलावा स्पेन, बेल्जियम, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका, कनाडा और हाल ही में नार्वे समेत दुनिया के 6 देश गे मैरिज को मान्यता भी दे चुके हैं। सवाल यह उठता है कि जब समाज बदलने के साथ-साथ अब लोगों की सेक्सुअल पसंद में बदलाव आने के बावजूद हम कब तक उन बदले हुए लोगों की जरूरतों पर विचार नहीं करेंगे? माननीय हाईकोर्ट के होमोसेक्सुएलिटी पर कमेंट के बाद शायद अब वास्तव में वह वक्त आ गया है, जब विवादास्पद धारा 377 पर विचार किए जाने की जरूरत है!

Wednesday 6 August, 2008

धन्य है ट्रैफिक पुलिस!

एक सज्जन अपना स्कूटर सड़क किनारे स्थित मेडिकल स्टोर के बाहर खड़ा करके अपनी बीमार बीवी के लिए दवाई लेने के लिए दुकान में गए। थोड़ी देर बाद बाहर निकल कर देखते हैं, तो उनका स्कूटर अपनी जगह से गायब है। जाहिर है की यह नजारा देखते ही पहले ही बीवी की बीमारी से परेशान उन सज्जन ने चिल्लाना शुरू कर दिया। शोर सुनकर मेडिकल स्टोर वाला बाहर आ गया और आस-पास के कुछ और लोग भी आ गए। तब उन सज्जन ने अपना स्कूटर गायब होने की बात बताई। उन्हें चिल्लाता देख सामने पान की दुकान वाले ने बताया कि आपका स्कूटर ट्रैफिक पुलिस की बिना पार्किंग के खड़े वाहन उठाने वाली गाड़ी ले गई है। यह सुन कर सभी लोग सड़क पर आ गए। वाकई सामने उन सज्जन का स्कूटर और दूसरे वाहनों के साथ ट्रैफिक पुलिस की गाड़ी पर लदा हुआ जा रहा है। बस फिर क्या था, उन सज्जन ने आव देखा ना ताव और रोको-रोको चिल्लाते हुए उस गाड़ी के पीछे बेतहाशा दौड़ लगानी शुरू कर दी। बेहद घबराए हुए उन सज्जन के हाथ में एक्सरे की रिपोर्ट और दवाइयों की थैली भी लहरा रही थी। वह तो शुक्र था कि उनकी ऐसी हालत देखकर एक मोटरसाइकल सवार को तरस आ गया और उसने उन सज्जन को उनका स्कूटर ले जा रही गाड़ी के आगे ले जाकर खड़ा कर दिया। नहीं तो वह सज्जन भागते-भागते बेहाल हो गए होते। इस तरह वह सज्जन अपने स्कूटर के पास पहुंचे और उन्होंने पुलिस को `नजराना´ चढ़ा कर उसे वापस लिया। यह नजारा पिछले दिनों विकास मार्ग पर नजर आया। वहां मौजूद लोगों ने बताया कि ट्रैफिक पुलिस अक्सर इस तरह की कवायद करती रहती है। पार्किंग के लिए जगह कम होने की वजह से कई बार आम आदमी भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। भले ही उन्होंने किसी दुकान से कुछ सामान खरीदने के लिए कुछ ही देर को अपना वाहन बाहर खड़ा किया हो। जबकि कई बार सड़क के किनारे बेतरतीब खड़े वाहनों को भी छोड़ दिया जाता है। माना की यह कवायद लोगों की सहूलियतों के लिए ही की जाती है, लेकिन इस तरह शरीफ आदमी को परेशान नहीं किया जाना चाहिए। आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अपनी बीवी की दवाई खरीदने आए उस आदमी को बिना बात कितनी परेशानी उठानी पड़ी होगी। ऊपर से `नजराना´ देना पड़ा सो अलग।
धन्य है दिल्ली की ट्रैफिक पुलिस! भले ही बेतरतीब खड़े वाहनों की वजह से लगे जाम में फंसे, धूप से तमतमाए लोगों को कुछ राहत पहुंचाए या ना पहुंचाए,लेकिन पार्किंग अरेंजमेंट बिल्कुल दुरुस्त रखती है।

Tuesday 5 August, 2008

मेल टीचर्स को बाय-बाय


चिट्ठाजगत


मेल टीचर्स के लिए रोजगार के मौके दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा की सरकार ने फैसला किया है कि गर्ल्स स्कूलों में पचास साल से कम उम्र के मेल गेस्ट टीचर अपनी सेवाएं नहीं दे सकेंगे। कहा जा रहा है कि यह फैसला प्रदेश भर में मेल टीचर्स द्वारा छात्राओं से अभद्र व्यवहार की शिकायत के बाद लिया गया है। साथ ही इस वक्त गर्ल्स स्कूलों में काम कर रहे 50 साल से कम उम्र के मेल गेस्ट टीचर्स को दूसरे स्कूलों में एडजस्ट करने के आदेश दिए गए हैं। गौरतलब है कि राज्य के गर्ल्स स्कूलों में परमानेंट टीचरों की नियुक्त के लिए पहले ही प्रावधान है कि वहां उम्रदराज टीचरों की भती की जाए। लेकिन परमानेंट टीचर्स की कमी की वजह से रखे गए गेस्ट टीचर्स की नियुक्त के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। इसी तरह राजधानी दिल्ली में भी एमसीडी ने पिछले दिनों फैसला सुनाया था कि उसके अंतर्गत चलने वाले सभी गर्ल्स स्कूलों में मेल टीचर्स का ट्रांसफर कर दिया जाएगा। इसकी वजह भी पुरुष टीचरों द्वारा बच्चियों से अभद्र व्यवहार की शिकायत थी। एमसीडी के पीआरओ वाई. एस. मान ने बताया कि टीचर्स असोसिएशन के ऑब्जेक्शन के बाद इस फैसले को लागू नहीं किया जा सका है। जबकि एमसीडी एजुकेशन डिपार्टमेंट के एक अधिकारी ने बताया कि यह फैसला करीब-करीब लागू किया जा चुका है। मेल टीचर्स को काफी हद तक गर्ल्स स्कूलों से ट्रांसफर कर दिया गया है। जल्द ही सभी गर्ल्स स्कूल पूरी तरह मेल टीचर्स फ्री हो जाएंगे। अब सिर्फ ऐसे ही स्कूल बचे हैं, जहां सुनसान इलाका होने की वजह से फीमेल टीचर्स जाना नहीं चाहती। जाने-माने समाजशास्त्री और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं कि यह विडंबना ही है कि एक टीचर अपनी स्टूडेंट्स से छेड़छाड़ करने लगता है। ऐसी कंडिशन में गर्ल्स स्टूडेंट्स को किसी भी तरह ऐसे वहशियों से बचाना बेहद जरूरी है। हाल ही में एमसीडी स्कूल में हुए एक रेप केस के बाद इस प्रसीजर में और तेजी आ गई है। रेप केस के बाद जागी एमसीडी ने छात्राओं की सुरक्षा के लिए त्वरित कदम उठाने की पहल की है। मसलन स्कूलों की चारदीवारी ऊंची की जाएगी। खास बात यह है कि गर्ल्स स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स पर अविश्वास व्यक्त करने वाली एमसीडी छात्राओं की सुरक्षा के लिए प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड रखने का प्लान बना रही है। सूत्र बताते हैं कि इस प्लान पर जोर-शोर से काम चल रहा है। सवाल यह उठता है कि क्या प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड छात्राओं को पढ़ाने वाले टीचर्स से ज्यादा विश्वासपात्र हैं? आनंद कुमार कहते हैं कि प्राइवेट सिक्युरिटी रखने की नौबत ही क्यों आती है। बाहरी लोगों की इतनी हिम्मत कैसे पड़ गई कि वे किसी स्कूल में घुस कर रेप जैसे घृणित कार्य को अंजाम देने के बाद भाग जाएं। उस वक्त उस इलाके का थानेदार क्या कर रहा है। क्या दिल्ली की पुलिस सिर्फ नेताओं की चमचागिरी करने के लिए है। इस तरह की घटनाओं के लिए उस इलाके की पुलिस को जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। एमसीडी के नए प्लान के तहत ट्रांसफर किए गए एक मेल टीचर बताते हैं कि यह एमसीडी द्वारा अपनी नाकामी छुपाने के लिए उठाया गया कदम है। अगर एक-दो टीचरों ने इस तरह की गलत की है, तो उसकी सजा आप सभी टीचर्स को नहीं दे सकते। वैसे भी इस फैसले को लागू करने में प्रैक्टिकल प्रॉब्लम आ रही हैं। आखिर एमसीडी इतनी सारी फीमेल टीचर्स कहां से लाएगी। अगर बिना जबर्दस्ती इस फैसले को लागू किया जाएगा, तो गर्ल्स स्कूलों में टीचरों की कमी पड़ पाएगी। आनंद कुमार कहते हैं कि गर्ल्स स्कूलों में मेल टीचर्स बैन करने से पहले आवश्यक कदम उठाने जरूरी हैं। अगर आपके पास टीचर्स की कमी है, तो यह बात पहले सोचनी चाहिए थी। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। बी.एड. पास हजारों लड़कियां नौकरी की तलाश कर रही हैं। उन्हें मौका देकर महिला टीचर्स की कमी को पूरा किया जा सकता है। अब देखना यह है कि महिला स्कूलों को पुरुष टीचरों से मुक्त करने के बाद भी गर्ल्स स्टूडेंट्स की परेशानियां दूर हो पाती हैं या नहीं!

Monday 4 August, 2008

सिक्के की ताल पर चलती बस

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सिक्के की ठक... ठक... ठक... और एकाएक हवा से बातें करती बस रुक गई। ठक... की आवाज से काफी देर से रुकी बस एकदम चल पड़ी और लगातार ठक... ठक... ठक... ठक... ठक... की आवाज के बाद तो बस ने काफी देर तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। ऐसे नजारे हम सभी लोग रोजाना देखते हैं कि भयानक गर्मी से परेशान लोग काफी देर से ड्राइवर से बस चलाने की रिक्वेस्ट कर रहे हैं, लेकिन उसके कान पर कोई जंू नहीं रेंग रही। जबकि, हेल्पर के सिक्के की खनखनाहट में ना जाने क्या जादू होता है कि बस तुरंत चल पड़ती है। ठीक ऐसा ही वाकया बस रुकवाने के मामले में भी होता है। जब ड्राइवर आपके स्टॉप पर बस नहीं रोकता और हेल्पर के सिक्के की आवाज पर बिना स्टॉप के भी बस रुक जाती है। इस तरह के नजारे न सिर्फ Žलू लाइन बल्कि डीटीसी की बसों में भी नजर आते हैं। ऐसे में पैसेंजर सोचते हैं कि आखिर सिक्के की आवाज में ऐसा क्या जादू होता है, जो ड्राइवर को बस रोकने के लिए मजबूर कर देता है? बस हेल्पर सनी ने बताया, `सिक्के की ठक...ठक हमारे और ड्राइवर के बीच की कोड लैंग्वेज होती है। बस में हेल्पर या कंडक्टर पीछे वाली खिड़की पर बैठता है। उसके लिए वहां बैठकर ड्राइवर को आवाज लगाकर बस रोकने या चलने के लिए बोलना मुमकिन नहीं होता। इसी प्रॉŽलम को सॉल्व करने के लिए सिक्के की आवाज से बात की जाती है। तीन-चार बार ठक-ठक करना बस रुकने, एक बार बस चलाने और लगातार ठक-ठक करना बस तेजी से चलाने का इशारा होता है।´ आखिर सिक्के की ठक-ठक को ही ड्राइवर-कंडक्टर की बातचीत का मीडियम क्यों बनाया गया? सनी के मुताबिक, `सिक्का एक ऐसी चीज है, जो कंडक्टर के पास हमेशा और आसानी से मौजूद रहता है। साथ ही इसकी आवाज आसानी से बस के एक कोने से ड्राइवर तक पहंुच जाती है। इसलिए सिक्के को ड्राइवर-कंडक्टर के बीच बातचीत के लिए यूज किया जाता है। वैसे, आजकल कुछ बसों में आपका नया ट्रेंड भी नजर आ जाएगा। अब कुछ बस मालिकों ने ड्राइवर के पास एक घंटी लगवा दी है, जिसका स्विच कंडक्टर के पास रहता है। वे बस को रुकवाने या चलवाने के लिए इस घंटी का यूज करते हैं।´ सीए के स्टूडेंट अंकित कहते हैं कि कंडक्टरों की यह लैंग्वेज हमारे लिए काफी नुकसान दायक साबित होती है। भले ही पैसेंजर अपने स्टॉप पर कितना ही शोर मचा ले या बस को हाथ से बजा ले, लेकिन ड्राइवर सिक्के की आवाज सुने बिना बस नहीं रोकता। सवारी चढ़ाने के वक्त तो ये लोग कहीं पर भी बस रोक कर खड़े हो जाते हैं, लेकिन सवारी उतारने के वक्त डीटीसी स्टॉप पर भी रोकने को तैयार नहीं होते और अपनी मनमानी करते हैं। कई बार सिक्के की आवाज पर बस नहीं रुकने पर पैसेंजर को चोट लगने का खतरा रहता है। गौरतलब है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बस वाले पैसेंजर्स की सुरक्षा की दृष्टि से शीशे पर सिक्का बजाकर बस ना रोकें, बल्कि इस काम के लिए कोई और तरीका अपनाएं। साथ ही बस को हरेक स्टॉप पर रोकें। उसके बाद कुछ बस मालिकों ने खानापूर्ति के लिए बसों में घंटी जरूर लगाई है, लेकिन कंडक्टर शायद ही कभी इसका यूज करते दिखाई देते हैं। दिल्ली यूनिवçर्सटी की स्टूडेंट शालिनी के मुताबिक, `बस वालों पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार का कोई असर दिखाई नहीं देता। बसों में घंटियां सिर्फ दिखाने के लिए लगाई गई हैं। उनमें से ज्यादातर तो खराब पड़ी हैं और कोई अगर ठीक भी है, तो उसका कोई यूज नहीं करता।´ सरकार और कोर्ट की तमाम कोशिशों के बावजूद बसों की ठक...ठक... पर रोक नहीं लग पा रही है। अब देखना पçŽलक को इस परेशानी से निजात दिलाने के लिए कोई और कदम उठाया जाएगा या फिर बस वाले खुद ही लाइन पर आ जाएंगे।