Saturday, 20 September 2008
बहुत दिनों बाद आईआईएमसी में.....
कल एक अरसे बाद जेएनयू कैंपस स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन (IIMC) जाना हुआ। यह वही जगह है, जहां मैंने अपनी जिंदगी का स्वर्णिम वक्त बिताया है। वाकई उन दिनों की यादें मेरे दिलोदिमाग में कुछ इस तरह से बस गई हैं कि 615 नंबर की मिंटो रोड से पूर्वाचंल हॉस्टल जाने वाली बस में बैठते ही ऐसे ताजा हो गई, मानो कब से इसी पल का इंतजार था। उन दिनों हम स्टूडेंट पास से इस बस में मुफ्त सफर किया करते थे। सो कंडक्टर के टिकट कहते ही मुंह से अनायास ही `पास´ निकल पड़ा। लेकिन तभी मैंने वर्तमान में वापसी करते हुए कंडक्टर को वापस बुलाकर कहा कि पास खत्म हो गया, लो पूर्वाचंल हॉस्टल की टिकट काट दो।
जेएनयू से बस गुजरने के दौरान वहां के हसीन नजारों, गंगा ढाबे पर बिताई शामों और मामू के ढाबे पर किए कई बेहतरीन लंच की यादों को याद करता हुआ, मैं पूर्वाचंल हॉस्टल पहुंच गया। हालांकि मैं घर से नाश्ता करके गया था, लेकिन वहां की फेमस परांठे वाले की दुकान ने अपनी और खींच ही लिया। अभी अभिनीत और रश्मि के आने में वक्त था। इसलिए थोड़ी देर रुक कर परांठों का आनंद लेने में कोई बुराई नहीं थी। यह अभिनीत का ही प्रोग्राम था जिस वजह से बहुत दिनों बाद मैं आईआईएमसी गया था। वहां पर आलू-छोले की सब्जी और दही के साथ गर्मागर्म आलू और सत्तू के परांठे खाते वक्त मुझे वह दिन याद आ रहे थे, जब भरी सर्दी के दिनों में हम लोग लंच ब्रेक के दौरान वहां परांठे खाने आया करते थे। वाकई कंपकंपाती सर्दी में वहां धूप में बैठकर परांठे खाने का मजा ही कुछ और हुआ करता था।
पेट से ज्यादा मन की क्षुधा तृप्त करने के बाद मैंने पूर्वाचंल हॉस्टल से आईआईएमसी ओर जाने वाली पगडंडी का रुख किया। उस वक्त मैं अपने पुराने रूम मेट विवेकानंद और पवन को बेहद मिस कर रहा था, जिनके साथ किसी वक्त में मैं पूरे नौ महीने तक रोजाना वह सफर तय किया करता था। ऐसा लग रहा था, मानों अभी विवेकानंद की आवाज आएगी, `अमां यार प्रशांत जरा तेज कदम बढ़ाओ।´ इन्हीं यादों में खोए हुए इंस्टिट्यूट का एंट्री गेट और गल्र्स हॉस्टल आ गया। हालांकि अब पिछले कई सालों से बन रहा बॉयज हॉस्टल भी तैयार होता नजर आया, लेकिन सुनने में आ रहा है कि वह भी लड़कियों को ही दिया जाएगा। और हम जैसे बॉयज स्टूडेंट मुनिरका, बेरसराय और कटवारिया सराय की तंग गलियों में ही अपने कोर्स के नौ महीने काटने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
खैर मैं अभिनीत से मिलने के लिए पहले से तय की गई जगह मुरली के टपरे पर पहुँच गया। मुरली का टपरा आईआईएमसी के पिछले हिस्से में बनी चाय की दुकान को कहा जाता है। जहां चट्टान जैसे पत्थरों पर बैठकर स्टूडेंट चाय की चुस्कियों के साथ बौद्धिक जुगाली करते हैं। हैरान ना हों, देश के प्रीमियर मॉस कॉम इंस्टिट्यूट के स्टूडेंट्स से यह अपेक्षा की जाती है कि वे चाय पीते वक्त भी साथियों के साथ सम-सामयिक मुद्दों पर गर्मागर्म बहसें करें। और अक्सर हम लोग वहां बैठकर यही किया करते थे। हमारे कुछ साथी इस दौरान सिगरेट की सहायता भी लिया करते थे। तभी हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स कुछ स्टूडेंट वहां आ गए और चाय के साथ सिगरेट के कश मारने लगे।
यहां यह बात विचारणीय है कि मैंने पहली बार में ही ऐसा कैसे सोच लिया कि वे हिंदी के स्टूडेंट नहीं थे। दरअसल, उन्हें देखकर मुझे इंस्टिट्यूट में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई। जब इसी जगह पर मैं लड़कियों को सिगरेट पीता देखकर आश्चर्यचकित हो गया था। हमारे मेरठ के कॉलेजों में में तो लड़के-लड़कियों के थोड़ी देर कहीं बैठकर बात करने पर ही प्रोफेसर टोक दिया करते थे और यहां लड़का-लड़की साथ में सिगरेट पी रहे थे! इस सच को स्वीकार करने में मुझे थोड़ा वक्त लगा था। हमारे वक्त में भी सिगरेट के कश मारते वे कपल हिंदी के अलावा दूसरे कोर्स के स्टूडेंट हुआ करते थे और आज भी वे दूसरे कोर्सो के ही स्टूडेंट थे। इसकी पुष्टि मैंने उनसे बातचीत करके कर ली। पता नहीं क्यों, मुझे अभी भी यकीन है कि हिंदी कोर्स के स्टूडेंट अभी इतने आधुनिक नहीं हुए हैं कि लड़का-लड़की साथ बैठकर सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाएं।
खैर तभी सामने से आते अभिनीत और रश्मि दिखाई पड़ गए और मैं अपनी स्मृति यात्रा को यहीं विराम देकर उनकी ओर चल पड़ा!
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अच्छा लगा आपकी स्मृति यात्रा पढ़कर.
ReplyDeleteमुझे भी आपने आईआईएमसी के दिन याद गये सचमुच सबसे अच्छे दिनों में से है। मैने रेडियो टीवी से २००५ में पास किया है ।
ReplyDeletepls give me your mail id.
ReplyDeleteतुम्हारे साथ मैंने भी आईआईएमसी की सैर कर ली..
ReplyDeleteमजा आ गया पढ़कर, लेकिन अक्सर हम सबसे अच्छे वक्त की याद सबसे ज्यादा टीस दे जाती है.....कितना सुहाना था सबकुछ...मानो कल ही की तो बात हो....गुलाबी सर्दी में पैदल जेएनयू की सड़कें नापना....पवन जल्दी ही थक जाता था और तुम भी....फिर पवन कहता विवेक जी, अब तो मैं मर जाऊंगा....एक ही थाली में कैसे पनीर के लिए हमारी चम्मचें जंग किया करती थीं टेफलॉज़ में? याद है? फिर मेरी सिगरेट और तुम लोगों की नसीहतें....क्या. कमरे में बिल्ली ने कितना दूध पिया होगा हमारा....कोई अंदाज नहीं....मकान मालकिन ताई के आते ही हम तीनों कोनों में छुप जाते थे....पवन का ही नाम याद था उन्हें....कहां है वो बिहारी.....बार-बार यही कहती थीं। और क्या याद करूं...या क्या भूल जाऊं ताकि याद न आए कभी और दिल भारी न हो...बस दिल से यही बात निकलती है.... क्या यार, वही वक्त दोबारा नहीं आ सकता क्या? सिर्फ एक बार, कुछ लम्हे और....कुछ पल और...पूरी जिंदगी खत्म कर दें उनमें......
ReplyDeleteविवेकानंद