Wednesday, 24 September 2008

किसी को नहीं चाहिए `लक्ष्मी´


हमारे समाज में लड़की को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। वैसे तो हर कोई चाहता है कि उसका घर हमेशा लक्ष्मी से भरा रहे। लेकिन जब बात इस लक्ष्मी की आती है, तो क्या अमीर क्या गरीब सभी नाक भौंह सिकोड़ने लगते हैं। यह समाज की कड़वी सच्चाई है कि असली लक्ष्मी के स्वागत के लिए कोई भी तैयार नहीं है:

एक अजन्मी बच्ची अपनी मां की कोख में निश्चिंत भाव से खेल रही थी। भले ही अभी उसने यह सतरंगी दुनिया नहीं देखी है, लेकिन मां की सहायता से वह इसके बारे में काफी कुछ जान गई है। कहा जाता है कि बच्चे मां की कोख में रहने के दौरान ही उससे काफी कुछ सीख लेते हैं। इसका एक उदाहरण मां की कोख में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख लेने वाला अभिमन्यु भी है। इसी तरह इस बच्ची की आंखों में भी अभी से ही दुनिया को जीतने के सुनहरे सपने हैं। दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह अपनी मां की कोख में वह इतनी खुश है कि उसकी चपलता देखकर उस खुशी को बड़ी आसानी से महसूस किया जा सकता है।
लेकिन यह क्या अचानक वह कांपने लगती है। उसके दिल की धड़कन बहुत तेज चलने लगती है। अपनी ओर तेजी से बढ़ती एक मशीन को देखकर बच्ची को काफी घबराहट हो रही है। बचने के लिए बच्ची ने इधर-उधर भागने की कोशिश की, लेकिन भाग नहीं सकी। मौत को बहुत करीब आया देखकर वह छटपटाई भी गिड़गिड़ाई भी, लेकिन सब बेकार। किसी भी चीज को बेहद तेजी से अपने अंदर खींच लेने वाली मशीन ने उस भ्रूण रूपी बच्ची को भी अपने अंदर खींच लिया। और वह बच्ची इस रंग-बिरंगी दुनिया से रूबरू होने के सुनहरे सपने आंखों में बसाए दुनिया में आने से पहले ही अलविदा हो गई। बचे थे तो सिर्फ बच्ची के कोमल शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े, ढेर सारा खून और एक खामोशी....
यह कोई फीचर फिल्म नहीं, बल्कि किसी अजन्मे बच्चे के अबॉर्शन का दृश्य है। भले ही पढ़ने और देखने वालों को यह बड़ा दर्दनाक महसूस हो रहा हो, लेकिन ऐसे दृश्य हमारे देश में रोजाना ना जाने कितनी बार दोहराए जाते हैं। न जाने कितनी बच्चियां रोजाना उनके `अपनों´ की वजह से दुनिया में आने से पहले ही काल के गाल में समा जाती हैं। कल को इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, प्रतिभा पाटिल और कल्पना चावला बनने की कूवत रखने वाली उन बच्चियों को अपनी असमय और दर्दनाक मृत्यु से ज्यादा दुख इसी बात का होता है कि उन्हें इस दर्दनाक तरीके से मौत देने वाले उनके `अपने´ ही होते हैं। वैसे तो नारी को दया और त्याग की प्रतिमूर्ति माना जाता है, लेकिन उन्हें उस बच्ची के दर्द का बिल्कुल अहसास नहीं होता जिसे वे `कुलदीपक´ की चाहत में कुर्बान कर रही हैं। यह एक दर्दनाक सच्चाई है कि इन अजन्मी बच्चियों की सबसे बड़ी दुश्मन उनकी दादी, मम्मी और बुआ ही होती हैं।

जब अपने ही बने दुश्मन
अक्सर महिलाओ से जुड़े कार्यक्रमों में हम लोग महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ते नजर आते हैं, लेकिन उससे पहले एक बार अपने गिरेबान में झांककर देखें कि वाकई हम इसके लिए तैयार हैं। यह समाज से जुड़ी एक कड़वी सच्चाई है कि इन कसीदे पढ़ने वालों में ना जाने कितनों ने अपनी ही बच्ची को जन्म लेने से पहले ही मौत की नींद सुला दिया होगा। अक्सर हम लोग यह कहकर अपने आपको को झूठा दिलासा देते हैं कि आजकल समाज की सोच बदल रही है। पढ़े-लिखे लोग लड़के और लड़कियों को एक ही नजर से देखते हैं। वे उन्हें पढ़ाई और दूसरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में कोई भेदभाव नहीं करते। लेकिन यह बातें सिर्फ कहने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं। सच यह है कि चाहे अमीर हो या गरीब लड़कियों के मामले में सबकी सोच एक जैसी ही है। भले ही हम ऊपर से लड़की को लक्ष्मी का रूप मानते हैं, लेकिन असलियत में कोई नहीं चाहता कि वह `लक्ष्मी´ उसके घर आए।

राजधानी में घटता सेक्स रेशो
पिछले दिनों एक एनजीओ सेंटर फॉर सोशल रिसर्च द्वारा किए गए एक सर्वे में यह शर्मनाक तथ्य सामने आए हैं कि देश की राजधानी दिल्ली कन्या भ्रूणों की हत्या के मामले में भी `राजधानी´ है। 2007 में किए गए एक प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लेनसट के सर्वे के मुताबिक राजधानी और एनसीआर में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 762 लड़कियां मौजूद हैं। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में यह अनुपात 1000 के मुकाबले 886 था। जबकि उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों पर 927 लड़कियां था। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि देश के धनी राज्य माने जाने वाले दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र अजन्मी लड़कियों के लिए कत्लगाह के रूप में सामने आए हैं। इन आंकड़ों से साफ जाहिर हो रहा है कि हम लोग धरती को लड़कियों से मुक्त करने के निर्मम मिशन पर बेहद तेजी से काम कर रहे हैं। हमें उस पल का बिल्कुल अंदाजा नहीं है, जब लड़कियों की कमी की वजह से कई लोगों को कुंवारा रहना होगा। अभी भी कई राज्यों में लड़कियों की कमी की वजह से केरल और उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों से दुल्हनें खरीद कर लाने की नौबत आ चुकी है।

लड़की पराया धन होती है?
अफसोस की बात यह है कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे हम लोगों के ख्यालात अभी भी सत्तरहवीं सदी वाले ही हैं। सर्वे में बताया गया है कि हम लोग अभी भी उसी लकीर को पीट रहे हैं कि लड़की पराया धन होती है, जिसे कल को दूसरे घर जाना होता है। इसलिए उसकी पढ़ाई-लिखाई पर पैसा खर्च करने से कोई फायदा नहीं है। पढ़ाई पर पैसा खर्च करने के बाद भी दहेज देना पड़ेगा। जबकि लड़के बुढ़ापे का सहारा होते हैं, वंश चलाते हैं और माता-पिता का अंतिम संस्कार करते हैं। अब हम लोगों को कौन समझाए कि सच्चाई इसके उलट है। अगर वास्तविकता के धरातल पर आकर सोचा जाए, तो पता चलेगा कि आजकल लड़कियों से पहले लड़के घर छोड़कर चले जाते हैं। आज के युग में ज्यादातर बच्चें बारहवीं के बाद ही आगे की पढ़ाई करने के लिए दूसरे शहर चले जाते हैं। उसके बाद वे लगातार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक दिन इतना ऊपर पहुँच जाते हैं कि मां-बाप को भी नजर आना बंद हो जाते हैं। जी हां, पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़के विदेशों या बड़े शहरों में `अपनी फैमिली´ के साथ सेट हो जाते हैं। जबकि मां-बाप उनके कभी-कभी घर आने की बाट जोहते रहते हैं। इनमें से विदेशों में रहने वाले कई `सुपुत्र´ तो ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने मां-बाप के अंतिम संस्कार के वक्त आना भी गवारा नहीं होता।

बदल रही है फिजा
अगर खुले दिमाग से सोचा जाए, तो वह जमाने लद गए जब लड़कियां अपने मां-बाप पर बोझ हुआ करती थीं। आधुनिक समाज में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जहां लड़के मां-बाप को छोड़कर चले गए और लड़कियों ने उन्हें सहारा दिया है। 55 वर्षीय सुषमा बताती हैं, `शादी के पांच साल बाद ही मेरे पति की एक एक्सीडेंट में डेथ हो गई थी। मैंने नौकरी करके अपनी दोनों लड़कियों और एक लड़के को पढ़ाया है। लड़का शादी के बाद विदेश चला गया है। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती, इसलिए मैं बड़ी लड़की-दामाद के पास रहती हूँ ।´ साथ ही सिर्फ दहेज के लिए कन्या भ्रूण हत्या करने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि अगर लड़की पढ़ी-लिखी और कमाऊ है, तो उसे दहेज की जरूरत नहीं पड़ती। सुषमा कहती हैं, `मेरी दोनों लड़कियां अच्छी नौकरी कर रही हैं। इसलिए उनके ससुराल वालों ने दहेज की कोई डिमांड नहीं की।´ अपने क्लीनिक के बाहर `अभी पांच हजार खर्च करें और भविष्य के पांच लाख रुपए बचाएं´ जैसे घृणित विज्ञापन लगाने वाले लोगों को समझ लेना चाहिए कि पैसा सिर्फ लड़कियों के दहेज पर ही खर्च नहीं होता। अगर कोई इंसान अपने लड़के को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहता है, तो उसे पढ़ाई में दस से बीस लाख तक रुपए तक खर्च करने को तैयार रहना चाहिए।

2 comments:

  1. विचारोत्‍तेजक आलेख्। बधाई।

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  2. aap to Meerut se hai.....aapka blog dekha kar khushi hui....je jaan kar or bhi achcha laha ki aap balika bachane ke himaayti hai....apne lekhan ki dhaar ko banaye rakhen..

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